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हर दिन हजारों यात्री पुण्य पथ पर आगे बढ़ रहे, पर एकला चलो रे की तर्ज पर, न कोई रेला, न कोई मेला

पुण्यसलिला रेवा के उद्गम से संगम तक आस्था का कारवां चातुर्मास को छोड़ कभी नहीं रुकता अपने संकल्प की पूर्ति में रत आस्थावान अकेले ही पग-पग बढ़ता जाता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 29 May 2020 01:36 PM (IST)Updated: Fri, 29 May 2020 01:38 PM (IST)
हर दिन हजारों यात्री पुण्य पथ पर आगे बढ़ रहे, पर एकला चलो रे की तर्ज पर, न कोई रेला, न कोई मेला
हर दिन हजारों यात्री पुण्य पथ पर आगे बढ़ रहे, पर एकला चलो रे की तर्ज पर, न कोई रेला, न कोई मेला

मनोज भदौरिया, आलीराजपुर। वैश्विक महामारी ने जिंदगी को देखने-समझने का नजरिया बदल दिया है। जिन कामों को हम बेहद जरूरी और कभी न रुकने वाले समझते थे, वे भी थम गए। मंदिरों के पट बंद हो गए। अनुष्ठानों पर विराम लग गया। आस्थावानों के साथ घरों में कैद होकर रह गईं। हालांकि इस बीच पुण्यसलिला रेवा की परिक्रमा यात्रा जारी है। हर दिन हजारों यात्री पुण्य पथ पर आगे बढ़ रहे हैं, पर एकला चलो रे की तर्ज पर, न कोई रेला, न कोई मेला। मप्र के आदिवासी अंचल के आलीराजपुर जिले से भी यात्री गुजर रहे हैं।

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दरअसल, नर्मदा परिक्रमा यात्री अधिक लोगों के समूह में नहीं चलते। आम तौर पर एक से दो लोग ही साथ होते हैं। यात्री अपनी गति के हिसाब से हर दिन पैदल यात्र करते हैं। कोई तेज चलता है तो कोई धीमा। यानी शारीरिक दूरी अपने आप बनी रहती है। रात्रि विश्रम के लिए डेरा भी इस तरह जमाया जाता है कि हर साधक को अपनी साधना के लिए पर्याप्त एकांत मिले। अमूमन मौन रहकर ही परिक्रमा यात्री साधना करते हैं। नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से कई यात्री पुण्य पथ पर आगे बढ़ते हैं। हालांकि कई श्रद्धालु ओंकारेश्वर से भी यात्र की शुरुआत करते हैं। यात्र का प्रारंभ नर्मदा के दक्षिणी तट से किया जाता है।

यहां से श्रद्धालु नर्मदा के संगम स्थल अरब सागर के तट पर पहुंचते हैं। यहां मीठी तलाई को पार कर उत्तरी तट पर आते हैं। उत्तरी तट से यात्र फिर वहां जाकर समाप्त होती है, जहां से प्रारंभ की गई। पैदल नर्मदा परिक्रमा करने वाले एक दिन में औसत 20-25 किमी तक चलते हैं। इसके बाद रात्रि विश्रम करते हैं। विश्रम के लिए मार्ग में किसी आश्रम, मंदिर आदि का चयन किया जाता है। गृहस्थ यात्री 6-8 माह में यात्र को पूर्ण कर लेते हैं। कई लोग जो पैदल चलने में समर्थ नहीं होते वे वाहन की मदद से यह यात्र करते हैं। इसमें 10-12 दिन का समय लगता है। संन्यासी धार्मिक मान्यता के अनुसार 3 साल 3 माह और 3 दिन में ही यात्रा पूर्ण करते हैं।

माना जाता है कि इस अवधि में यात्र करने पर कई गुना अधिक फल मिलता है। संन्यासी यात्री बेहद धीरे यात्रा करते हैं तथा मार्ग के सभी धर्मस्थलों का दर्धान-पूजन कर आगे बढ़ते हैं। नर्मदा परिक्रमा यात्री आदिवासी अंचल के घने जंगलों से होकर पैदल गुजरते हैं। क्षेत्र के लोगों की मां नर्मदा के प्रति गहरी आस्था है। यहां यात्रियों का आत्मीय स्वागत किया जाता है। यात्र पथ के हर गांव में यात्रियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था होती है। यात्री गांव के मंदिर अथवा आश्रम में विश्रम करते हैं।

यहां अक्सर ग्रामीण भोजन की व्यवस्था करते हैं। कई यात्री कच्ची सामग्री लेकर भोजन पकाकर खाते हैं। गत कई सालों से यात्रियों की सेवा कर रहे समाजसेवी पुरुषोत्तम राठौर टेमला बताते हैं कि हर दिन कई यात्री मार्ग से गुजरते हैं। उनकी सेवा कर अनुपम आनंद मिलता है। राठौर बताते हैं कि पूरे परिक्रमा पथ पर सेवादारों की चेन बनी हुई है। सभी एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। किसी गांव से अधिक संख्या में यात्रियों के निकलने की स्थिति में अगले पड़ाव पर पहले ही सूचना दे दी जाती है। इसी अनुसार विश्रम और भोजन की व्यवस्था की जाती है।

पुण्यसलिला रेवा के उद्गम से संगम तक आस्था का कारवां चातुर्मास को छोड़ कभी नहीं रुकता, इस यात्रा में कोई रैली या रेला नहीं है, अपने संकल्प की पूर्ति में रत आस्थावान अकेले ही पग-पग बढ़ता जाता है।

पुण्यसलिला रेवा के उद्गम से संगम तक आस्था का कारवां चातुर्मास को छोड़ कभी नहीं रुकता, अपने संकल्प की पूर्ति में रत आस्थावान अकेले ही पग-पग बढ़ता जाता है।


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