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आज भी 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा' के नारे से याद किए जाते हैं नेता जी

देश का ऐसा शायद ही कोई नागरिक हो जिसने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा का नारा न सुना हो साथ ही इस नारे को देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम भी उन्हें याद ही होगा।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Tue, 18 Aug 2020 07:05 AM (IST)Updated: Tue, 18 Aug 2020 07:05 AM (IST)
आज भी 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा' के नारे से याद किए जाते हैं नेता जी
आज भी 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा' के नारे से याद किए जाते हैं नेता जी

नई दिल्ली। देश का शायद ही ऐसा कोई नागरिक हो जिसने 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा' का नारा न सुना हो, साथ ही इस नारे को देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम उसके कानों में न पड़ा हो। सुभाष चंद बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने में उनके योगदान को भूलाया नहीं जा सकता है। नेताजी का पहला प्रेम भारत की आजादी था, लेकिन बहुत कम लोग ही जानते हैं कि उनका दूसरा प्रेम कारें थी। उनकी एक पसंदीदा कार आज भी देश की धरोहर के रूप में संजो कर रखी हुई। इस कार ने आजादी के सफर में नेताजी का खूब साथ दिया और कई बार उनकी जान भी बचाई।

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शिक्षा दीक्षा

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने रेवेनशा कॉलिजियेट स्कूल में दाखिला लिया। जिसके बाद उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। 1919 में बीए की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी से पास की और विश्वविद्यालय में उन्हें दूसरा स्थान मिला था। 

कारों के शौकीन थे नेताजी

नेताजी पर शोध करने वालों का कहना है कि यूं तो नेताजी के भवन में कई कारें रखी हुई थीं, लेकिन वांडरर कार छोटी और सस्ती थी और इस कार का आमतौर पर मध्यम आय वर्ग के लोग ही ग्रामीण इलाकों में इस्तेमाल करते थे। नेताजी भवन में रखी वांडरर कार का ज्यादा इस्तेमाल नही होता था, इसलिए जल्दी किसी का ध्यान इस पर नहीं जाता था।

नेताजी भली-भांति जानते थे कि किसी और कार का इस्तेमाल करने पर वे आसानी से ब्रिटिश पुलिस की नजर में आ सकते हैं। अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्होंने इस कार को चुना था। 18 जनवरी, 1941 को इस कार से नेताजी, शिशिर के साथ गोमो रेलवे स्टेशन (तब बिहार में, अब झारखंड में) पहुंचे थे और वहां से कालका मेल पकड़कर दिल्ली गए थे। 

...जब महात्मा गांधी से मिले नेताजी

20 जुलाई 1921 में सुभाष चंद्र बोस की मुलाकात पहली बार महात्मा गांधी जी हुई। गांधी जी की सलाह पर वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करने लगे। भारत की आजादी के साथ-साथ उनका जुड़ाव सामाजिक कार्यों में भी बना रहा। बंगाल की भयंकर बाढ़ में घिरे लोगों को उन्होंने भोजन, वस्त्र और सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का साहसपूर्ण काम किया था। उन्होंने 'युवक-दल' की स्थापना की।

यूरोप प्रवास

सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में उन्होंने अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा उनके अच्छे दोस्त थे। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया।

सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी। बाद में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। 

ऑस्ट्रिया में किया था प्रेम विवाह

सन् 1934 में जब वो ऑस्ट्रिया में ठहरे हुए थे, उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात कराई। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। एमिली ने सुभाष के टाइपिस्ट के तौर पर काम किया। इसी दौरान सुभाष एमिली को दिल दे बैठे। एमिली भी उन्हें बहुत पसंद करती थीं।

नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिंदू रीति-रिवाज से विवाह कर लिया। इसके बाद वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनीता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, तब उनकी बेटी अनीता मात्र पौने तीन साल की थी। उनका पूरा नाम अनिता बोस फाफ है। 

नेताजी को 11 बार कारावास

सार्वजनिक जीवन में नेताजी को कुल 11 बार कारावास की सजा दी गई थी। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 को छह महीने का कारावास दिया गया था। 1941 में एक मुकदमे के सिलसिले में उन्हें कोलकाता (कलकत्ता) की अदालत में पेश होना था तभी वे अपना घर छोड़कर चले गए और जर्मनी पहुंच गए। जर्मनी में उन्होंने हिटलर से मुलाकात की। 

नेताजी और मौत पर रहस्य

नेताजी की मौत पर रहस्य बरकरार है। 18 अगस्त 1945 को वे हवाई जहाज से मंचूरिया जा रहे थे। इस सफर के दौरान ताइहोकू हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। सुभाष चंद्र बोस का निधन भारत के इतिहास का सबसे बड़ा रहस्य है। उनकी रहस्यमयी मौत पर समय-समय पर कई तरह की अटकलें सामने आती रही हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक खुद जापान सरकार ने इस बात की पुष्टि की थी कि 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में कोई विमान हादसा नहीं हुआ था। इसलिए आज भी नेताजी की मौत का रहस्य खुल नहीं पाया है।


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