तालिबान का अफगानिस्तान पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव भारत के लिए चिंता का विषय
अफगानिस्तान समस्या के संदर्भ में पाकिस्तान और आइएसआइ की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। भारत के लिए बड़ी चुनौती है। फिलहाल अफगानिस्तान और वहां के लोगों को सहयोग और समर्थन की रणनीति पर बढ़ना सही कदम है।
प्रो. उमा सिंह। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि तालिबान की जीत गुलामी की बेड़ियां टूटने जैसा है। यह बयान पूरे क्षेत्र के लिए बड़ा संदेश है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि तालिबान के नेतृत्व में अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान का कैसा संबंध रहेगा। फिलहाल तालिबान की जीत भारत ही नहीं, पूरे क्षेत्र के लिए झटका है। भारत और अफगानिस्तान के बीच ऐतिहासिक और मजबूत द्विपक्षीय संबंध रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर देखें तो इन संबंधों की नींव जनवरी, 1950 में ही पड़ गई थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और भारत में अफगानिस्तान के अंबेसडर मुहम्मद नजीबुल्ला ने पांच साल की मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए थे।
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से संबंधों पर पड़ने वाला असर बड़ा सवाल है, क्योंकि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ और वहां की सेना तालिबान की प्रायोजक हैं। अल कायदा से भी तालिबान के संबंध खत्म नहीं हुए हैं। ऐसे में भारत के पास क्या रणनीतिक विकल्प बचा है? इस सवाल का जवाब भारत सरकार के अब तक उठाए गए सधे कदम बताते हैं। जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि भारत की प्राथमिकता अभी अपने लोगों को सुरक्षित निकालना और संकट में चल रहे अफगानिस्तान की मदद करना है। उनका कहना है कि भारत अभी इंतजार करने की रणनीति पर चल रहा है।
भारत की चिंता है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान से लगते इलाकों में बेस बनाए बैठे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को अब भारत के खिलाफ हमले का ज्यादा मौका मिलेगा। तालिबान के शासन में व्यापारिक रिश्ते भी मुश्किल में पड़ेंगे। चाबहार बंदरगाह के जरिये पाकिस्तान को किनारे रखने की भारत की कोशिश को भी झटका लगेगा। अफगानिस्तान में भारत के सहयोग से चल रही परियोजनाएं भी अधर में लटक गई हैं। तालिबान का अफगानिस्तान पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव भी भारत के लिए चिंता का विषय है। पिछली बार जब तालिबान ने सत्ता पर कब्जा किया था, तब महिलाओं व अल्पसंख्यकों के अधिकारों के हनन के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ी थीं।
एक चर्चा जोर पकड़ रही है कि भारत को तालिबान से बात करनी चाहिए। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि अब तालिबान ही वहां सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है। हालांकि विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा है कि अफगानिस्तान के लोग भारत के लिए अहम हैं और उनका समर्थन किया जाएगा। घरेलू मोर्चे पर तालिबान को अफगानिस्तान की जनता की बहुमत स्वीकृति नहीं मिल सकती है। नागरिक घर छोड़ रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से अन्य पड़ोसी देशों की तुलना में अफगानिस्तान के लोग भारत में शरण लेने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसे में उन्हें शरण व शिक्षा देना, उनका टीकाकरण कराना और उनके लिए रोजगार के अवसर बनाना समय की जरूरत है। भारत में भी कुछ लोग कहते हैं कि सरकार को तालिबान से बात करनी चाहिए। निसंदेह ऐसे लोग इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि आइएसआइ और हक्कानी नेटवर्क ऐसी किसी बातचीत का सकारात्मक नतीजा नहीं आने देंगे।
[अफगानिस्तान- पाकिस्तान मामलों की विशेषज्ञ]