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समय की दौड़ में पिछड़ती हमारी खेती-किसानी को फिर से उबारने के लिए उठाने होंगे प्रभावी कदम

देश की एक बड़ी आबादी को कृषि पालती है। पोषती है। रोजगार देती है। लेकिन समय की दौड़ में पिछड़ती हमारी खेती-किसानी को फिर से उबारने के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे। अगर समस्या है तो समाधान भी मौजूद हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 20 Dec 2021 10:49 AM (IST)Updated: Mon, 20 Dec 2021 10:50 AM (IST)
समय की दौड़ में पिछड़ती हमारी खेती-किसानी को फिर से उबारने के लिए उठाने होंगे प्रभावी कदम
कृषि उत्पादों के व्यापार, भंडारण, प्रसंस्करण और निर्यात आदि पर लगे सब प्रतिबंध समाप्त हों।

सोमपाल शास्त्री। हमारे देश में आज भी लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या और 45 प्रतिशत रोजगार खेती में ही है। कुल निर्यात में 12 से 14 प्रतिशत हिस्सा कृषि उत्पादों का है। सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों की ग्रामीण शाखाओं का ऋण और जमा का अनुपात लंबे समय से 30:70 बना है। इसका सीधा अर्थ है कि ग्रामीणजन द्वारा बैंकों में जमा की जानेवाली राशि का केवल 30 प्रतिशत भाग ग्रामीण ऋण के रूप में दिया जाता है।

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शेष 70 प्रतिशत रकम अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों के वित्तपोषण हेतु काम आती है। विनिर्मित उत्पादों और सेवाओं की लगभग 45-46 प्रतिशत मांग गांवों से आती है, जिसका मुख्य स्नोत यानी क्रयशक्ति खेती से उत्पन्न होती है। शहरों, उद्योगों, सेना एवं अर्धसैनिक बलों में काम करने वाले कर्मियों की 80 से 90 प्रतिशत संख्या यहीं से है। इससे साबित होता है कि भारतीय खेती और ग्रामीण क्षेत्र का योगदान राष्ट्र के विकास में अन्य घटकों की अपेक्षा अधिक है।

देश की अर्थव्यवस्था को इतना संबल देने वाली भारतीय खेती खुद कई प्रकार के असंतुलन से ग्रस्त है। पहला तो यह कि कृषि के उत्पादन में वृद्धि देश के केवल उन 45 प्रतिशत क्षेत्रों में हुई है जहां सिंचाई के सुनिश्चित साधन उपलब्ध हैं। वहां भूमि की औसत उत्पादकता चार टन प्रति हेक्टेयर के आसपास है। हमारी तथाकथित हरित क्रांति इन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रही है। शेष 55 प्रतिशत भूभाग की खेती अभी भी वर्षा के भरोसे होने के कारण प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 1.2 टन पर ही अटकी है। पूरे देश के ग्रामीण गरीबों और कुपोषितों की 80 प्रतिशत संख्या इन्हीं इलाकों में बसती है।

दूसरा असंतुलन है कि गेहूं और धान का उत्पादन तो आवश्यकता से अधिक हो रहा है और यह प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की वजह भी बना हुआ है जबकि खाद्य तेलों और दालों का भारी मात्र में आयात करना पड़ता है। तीसरी समस्या है कि गन्नों से बनने वाली चीनी का उत्पादन आवश्यकता से अधिक है और उसी से बन सकने वाले एथनाल तथा कई अन्य बहुमूल्य पदार्थ का आयात होता है। चौथे, इमारती लकड़ी तथा कागज बनाने वाली लुग्दी सहित वृक्षाधारित कई उत्पाद जो भारत में पैदा किये जा सकते हैं वे भी आयात होते हैं। पांचवें, कृषि व्यवसाय में रत और ग्रामीणजन की औसत आय तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोगों की औसत आय में अंतर निरंतर बढ़ता जा रहा है। 1970 में यह विषमता लगभग एक और तीन की थी जो अब बढ़कर एक के मुकाबले 16 हो चुकी है।

छठा असंतुलन और भी भयावह है जो कृषि की आधुनिक बौनी किस्मों, एकफसली और रसायन आधारित तकनीक के कारण पैदा हुआ है, जिसे हरित क्रांति का दुष्प्रभाव कहा जाता है। हमारी परंपरागत फसलों में भूसे और अनाज का अनुपात 70:30 होता है, बौनी फसलों में 50:50 है। इस कारण अन्न की पौष्टिकता, पशुचारे की मात्र और मिट्टी में मिलकर उसकी उर्वरकता बनाये रखने वाली जैविक सामग्री का अभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। परिणामत: चारे के दाम बढ़ने से दुग्ध उत्पादन की लागत बढ़ी है। बौनी फसलों की जड़ें कम गहरी होने तथा उर्वरक अधिक चाहने के कारण सिंचाई की डेढ़ से दोगुनी मांग से भूजल का अतिदोहन हुआ है। सिंचाई और बिजली की लागत बढ़ती जा रही है। सिंचाई और उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा विकृत हुई है। एकफसली पद्धति के कारण परंपरागत फसल प्रणाली और जैव विविधता का भयावह ह्रास हुआ है।

मौजूद हैं समाधान

  • जल संसाधनों के समग्र विकास हेतु दसवर्षीय योजना बने ताकि भारत के प्रत्येक खेत को सुनिश्चित सिंचाई और प्रत्येक गांव को शुद्ध पेय जल प्राप्त हो सके।
  • केवल भंडारण योग्य जिंसें ही नहीं बल्कि दूध, फल, सब्जी आदि जल्दी खराब होने वाले उत्पादों सहित सब उत्पादों की लागत का आकलन औद्योगिक उत्पादों की लागत के फामरूले से किया जाय।
  • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाय और उसकी सदस्यता में कृषकों, व्यापारियों, प्रशासकों, उपभोक्ताओं, न्यायविदों, अर्थशास्त्रियों को सम्मिलित किया जाय।
  • नियमित मंडियों के निर्माण की पंचवर्षीय योजना क्रियान्वित की जाय ताकि प्रत्येक दस-पंद्रह गांवों के समूह को एक मंडी की सुविधा उपलब्ध हो।
  • मंडियों में व्यापार करने वालों को लाइसेंस लिये जाने की बाध्यता समाप्त हो, जिसके कारण एकाधिकार और भ्रष्टाचार होता है। इसके बजाय केवल पंजीकरण की व्यवस्था हो ताकि अन्य व्यवसायों की भांति इस व्यापार में प्रवेश और निकासी मुक्त रूप से हो और प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन मिले।
  • सब प्रकार की कृषि जिंसों के भंडारण की देशव्यापी समयबद्ध योजना बने जिसके तहत मंडी स्थलों के आसपास गोदामों और शीतभंडारों की स्थापना हो जिनमें किसान अपनी जिंस रखकर रसीद प्राप्त करें जिसे हुंडी के तौर पर बैंक से भुनाया जा सके और यथासमय जिंस बेचकर बैंक की अदायगी कर सके। जापान में ऐसी व्यवस्था लंबे समय से उपलब्ध है।
  • कृषि उत्पादों के व्यापार, भंडारण, प्रसंस्करण और निर्यात आदि पर लगे सब प्रतिबंध समाप्त हों।
  • पशुधन के संरक्षण और चयनित संवर्धन की भी एक राष्ट्रव्यापी योजना लाभकर हो सकती है।
  • औषधीय पौधों की खेती और चिकित्सा पद्धतियों में उनका उपयोग और मूल्य संवर्धन सुनिश्चित हो।
  • चीनी मिलों और उनके उत्पादों पर बचे-खुचे नियंत्रण तुरंत समाप्त हों। इस उद्योग में एथनॉल सहित अनेक बहुमूल्य रासायनिक पदार्थ और औषधियों के निर्माण की भारी संभाव्यता से देश निर्यात बढ़ाकर लाभान्वित हो सकता है।
  • खेतों में उगाये जाने वाले वृक्षों पर वन कानून लगाकर नियंत्रण लगाया जाना सर्वथा अनुचित है। इसे तुरंत समाप्त कर कृषि वानिकी को फिनलैंड जैसे देश की नीति के अनुसार प्रोत्साहित किया जाय तो लगभग 50,000 करोड़ रुपये का आयात कम हो सकता है।

    [पूर्व कृषि मंत्री एवं सदस्य योजना आयोग, भारत सरकार]


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