ड्रैनेज का दम: लचर स्थानीय निकाय के कारण अवरुद्ध ड्रैनेज , जेएनएनयूआरएम का लाभ भी नहीं उठा पाए राज्य
दैनिक जागरण के राष्ट्रव्यापी अभियान ड्रेनेज का दम श्रृंखला की यह तीसरी स्टोरी है। सात दिन के इस अभियान में जलभराव की समस्या और उसके निदान की पड़ताल की जाएगी।
सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। आगामी कुछ सालों में देश के शहरों की आबादी 50 करोड़ को भी पार कर जाएगी। लेकिन शहरी विकास की चरणबद्ध और समयबद्ध योजना को लेकर कभी किसी ने गंभीरता नहीं दिखाई। केंद्र की मदद से पक्का मकान बनाने, सड़कें बनाने, पार्क के सौंदर्यीकरण पर नजरें जरूर गई लेकिन मकानों को पेयजल आपूर्ति, वहां से निकलने वाले सीवेज और गंदे पानी की प्रोसेसिंग, सड़कों के किनारे बनाए जाने वाले ड्रेनेज प्रणाली को लेकर बहुत गंभीरता नहीं बरती गई।
देश में अधिकतर जगह ड्रेनेज और सीवर लाइन का विकास नहीं होता
राजधानी दिल्ली के आसपास के दो शहरों का नमूना देखते हैं। जाने-माने टाउन प्लानर आर्किटेक्ट प्रवीण खरबंदा ने बताया कि एनसीआर के गुरुग्राम और नोएडा में अलग अलग व्यवस्थाएं काम कर रही हैं। नोएडा में बिल्डरों अथवा किसी को प्लाट देने से पहले जमीन की मालिक सरकार होती है। उसमें ड्रेनेज, सीवर लाइनें, सड़कें,लाइटें, पार्क समेत अन्य सभी जन सुविधाएं विकसित करने के बाद ही प्लाट किसी और को ट्रांसफर किए जाते हैं।
इसके विपरीत हाईटेक सिटी गुरुग्राम में बिल्डर सीधे किसान से जमीन खरीदकर अपने हिसाब से उसे विकसित कर लेते हैं। नतीजा यह होता है सही तरह से ड्रेनेज और सीवर लाइन का विकास नहीं होता है। लगभग यही व्यवस्था देश के बड़े हिस्से में है, जहां निवासी जमीन खरीदता है और अपने तरीके से आधा अधूरा ड्रैनेज तैयार कर निश्चिंत हो जाता है। खुला नाला ही ड्रैनेज माना जाता है।
शहरी निकायों के पास खुद के आय व्यय की कोई व्यवस्था नहीं
स्थानीय निकाय इडीसी यानी एक्सरनल डेवलपमेंट चार्ज तो वसूल लेता है लेकिन फिर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाता है। स्थानीय निकाय का अलग रोना है। देश के अधिकतर स्थानीय शहरी निकायों की वित्तीय स्थिति कुछ ऐसी है, कर्मचारियों के वेतन के लिए उसे राज्य सरकार के पैसे पर निर्भर रहना पड़ता है। उनके पास खुद के आय व्यय की कोई व्यवस्था ही नहीं है। यही कारण है कि स्मार्ट सिटी के 100 शहरों के चुनाव में डेढ़ साल लग गए थे क्योंकि स्थानीय निकाय की स्थिति लचर थी। दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में मामला राजनैतिक संवेदनहीनता का है। शहरों में साल दर साल मलिन बस्तियां बस जाती है।
शहरों में कई बार ड्रेनेज और सीवर एक हो जाता है
सैकड़ों गांवों की जमीनों पर बेहिसाब बेरोकटोक प्लाट काट दिया जाता है। राजनीतिक वजहों से इन अवैध बस्तियों को एक झटके में वैधानिक दर्जा देने की घोषणा कर दी जाती है। सीवर व ड्रेनेज समेत अन्य जनसुविधाओं के लिए कहीं जमीन नहीं होती है। बाद में अधकचरी ड्रैनेज व्यवस्था तैयार होती है और कई बार ड्रेनेज और सीवर एक हो जाता है। दुर्भाग्य की बात है कि केंद्र सरकार की ओर से 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के आधुनिकीकरण के लिए 2005 से 2012 तक के लिए जवाहर लाल नेहरु नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (जेएनएनयूआरएम) चलाया गया। बाद में इसे 2014 तक बढ़ा दिया गया।
देश की 1298 परियोजनाओं में से मात्र 231 को ही पूरा किया
इस मिशन से पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता, कूड़ा प्रबंधन, सड़कों का नेटवर्क, शहरी ट्रैफिक और पुराने शहरों में मूलभूत सुविधाएं बहाल करना था। लेकिन मिशन के प्रदर्शन की पड़ताल करने पर नियंत्रक, महालेखा परीक्षक (कैग) ने पाया कि इसकी 1298 परियोजनाओं में से मात्र 231 को ही पूरा किया जा सका। इसमें राज्य सरकारों की जबर्दस्त लापरवाही सामने आयी। परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण में विलंब और प्रोजेक्ट बनाने में देरी प्रमुख कारण रहे। उत्तर प्रदेश प्रोजेक्ट पूरा करने में सबसे पीछे रहा, जहां मात्र 12.24 फीसद काम ही हो पाए। दिल्ली में 17 फीसद और महाराष्ट्र में 26 फीसद काम हुआ, जिस पर असंतोष जताया गया।