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आपकी त्वचा, प्लास्टिक पर इतने घंटे जिंदा रहता है ओमिक्रोन वायरस, रिसर्च में सामने आई चौंकाने वाली जानकारियां

किसी प्लास्टिक की सतह पर यहां कोरोना का पहला या अल्फा वैरिएंट जहां 56 घंटे तक जिंदा रहता है। वहीं बीटा वैरिएंट 191.3 घंटे तक जीवित रहता है। ओमिक्रॉन वायरस प्लास्टिक की सतह पर औसतन 193.5 घंटे तक जीवित रहता है।

By TilakrajEdited By: Published: Thu, 27 Jan 2022 01:36 PM (IST)Updated: Thu, 27 Jan 2022 01:36 PM (IST)
आपकी त्वचा, प्लास्टिक पर इतने घंटे जिंदा रहता है ओमिक्रोन वायरस, रिसर्च में सामने आई चौंकाने वाली जानकारियां
त्वचा को 16 घंटे से अधिक समय तक संक्रामक बनाए रखा

नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। कोरोना के ओमिक्रोन वैरिएंट ने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है। बड़ी संख्या में युवा, बुजर्ग, बच्चे और महिलाएं इसकी चपेट में आ रहे हैं। इस वायरस के बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका संक्रमण तेजी से फैलता है। ऐसे में सतर्कता और सावधानी सबसे जरूरी है। हाल ही में जापान के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों में पाया है कि ओमिक्रोन वैरिएंट कोरोना के डेल्टा वायरस की तुलना में प्लास्टिक और इंसानों की त्वचा पर ज्यादा देरतक जीवित रहता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इसके वायरस के ज्यादा देर तक जीवित रहने की वजह से भी संक्रमण के तेजी से फैलने में मदद मिलती है। विशेषज्ञों का मानना है कि अधिक संक्रामक होने के चलते ओमिक्रोन वैरिएंट कोरोना के डेल्टा वैरिएंट को रिप्लेस कर सकता है।

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क्योटो यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन के योशितो इतोह ने ई-मेल के माध्यम से बताया कि किसी प्लास्टिक की सतह पर यहां कोरोना का पहला या अल्फा वैरिएंट जहां 56 घंटे तक जिंदा रहता है। वहीं, बीटा वैरिएंट 191.3 घंटे तक जीवित रहता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि डेल्टा वैरिएंट प्लास्टिक की सतह पर 156.6 घंटे तक जीवित रहता है। इन सब की तुलना में ओमिक्रॉन वायरस प्लास्टिक की सतह पर औसतन 193.5 घंटे तक जीवित रहता है। बायोरिव में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, शवों की त्वचा से लिए गए सैंपलों के आधार पर पाया गया कि कोरोना के पहले वैरिएंट इंसानी त्वचा पर लगभग 8.6 घंटे तक जिंदा रहता है, जबकि अल्फा वैरिएंट इंसानी त्वचा पर 19.6 घंटे तक जिंदा रहता है। बीटा वैरिएंट का वायरस त्वचा पर 19.1 घंटे और गामा वेरिएंट 11.0 घंटे तक जिंदा रहता है। रिपोर्ट के मुताबिक, डेल्टा वैरिएंट इंसानी त्वचा पर जहां 16.8 घंटे तक जिंदा रह सकता है। वहीं, ओमिक्रोन वैरिएंट का वायरस सबसे ज्यादा 21.1 घंटे तक जिंदा रह सकता है।

वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि अगर अल्कोहल से बने सेनेटाइजर कोरोना के किसी भी वैरिएंट के वायरस को डाल दिया जाता है, तो ये 15 सेकेंड में मर जाता है। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी किए गए कोरोना प्रोटोकॉल के मुताबिक, नियमित तौर पर हाथों को सेनेटाइज करने से इस वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने में काफी हद तक मदद मिलेगी। वैज्ञानिकों के मुताबिक, ओमिक्रोन वैरिएंट कोरोना के डेल्टा वैरिएंट की तुलना में कम घातक है। अध्ययन में पाया गया है कि ऐसे लोग जिनका इम्युनिटी सिस्टम कमजोर है उन्हें भी डेल्टा वैरिएंट की तुलना में ओमिक्रोन वायरस की वजह से बेहद गंभीर हालात का सामना नहीं करना पड़ रहा है।

इंग्लैंड में शोधकर्ताओं ने 333 अस्पतालों में ओमिक्रोन वायरस के संस्करण के पहले और बाद में लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की दर की तुलना की। ओमिक्रोन वायरस का संक्रमण शुरू होने से पहले संक्रमित 398 लोगों में से 10.8% को अस्पताल में भर्ती किए जाने की जरूरत थी, जबकि ओमिक्रोन से संक्रमित 1,241 में से 4% लोगों को ही अस्पताल ले जाने की जरूरत थी। संक्रमित लोगों की औसत आयु 85 वर्ष थी। अन्य जोखिम कारकों के आकलन के बाद, ओमिक्रोन वायरस के संक्रमण के दौरान संक्रमित रोगियों के लिए अस्पताल में भर्ती होने की संभावना 50% कम थी। रिसर्च में पाया गया कि जिन लोगों से कोविड वेक्सीन ली थी उन्हें संक्रमण के चलते अस्पताल ले जाए जाने की जरूरत नहीं पड़ी। वहीं डेल्टा वायरस की तुलना में ओमिक्रोन वायरस के चलते मौतें भी कम हुई हैं।

दुनिया भर में किए गए कई अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि अगर तेजी से कोरोना की वैक्सीन लोगों को लगाने और कोविड प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन करने से ओमिक्रोन वायरस के संक्रमण को रोकने और इससे संक्रमित होने वाले लोगों को लम्बे समय तक अस्पताल में इलाज की जरूरतों को काम करने में मदद मिल सकती है। साथ ही इससे कोरोना वायरस के संक्रमण से होने वाली मौतों को भी कम करने में मदद मिलेगी।

इतोह ने बताया कि हमारे अध्ययन से यह साबित हुआ है कि प्लास्टिक और त्वचा की सतहों पर, अल्फा, बीटा, डेल्टा और ओमिक्रोन वैरिएंट ने कोविड वायरस की तुलना में दो गुना अधिक लंबे समय तक जीवित रहा। वहीं, त्वचा को 16 घंटे से अधिक समय तक संक्रामक बनाए रखा। वहीं, स्टडी में सामने आया कि अल्फा और बीटा वैरिएंट के बीच जीवित रहने के समय में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं था।

आईआईटी के शोध ने बताया कि इस सतह पर ज्यादा देर तक जिंदा नहीं रहता कोरोना वायरस

आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर रजनीश भारद्वाज ने बताया कि शोध में सामने आया है कि पोरस सरफेस जैसे कि पेपर और कपड़े में वायरस कम समय तक जिंदा रहता है। इन सतह पर वायरस कुछ घंटों तक ही जिंदा रहता है। वहीं ग्लास, स्टैनलेस स्टील और प्लास्टिक में वायरस क्रमश: चार, सात और सात दिन जिंदा रहता है। पेपर पर वायरस तीन घंटे से कम समय तक ही जीवित रहता है। कपड़ों में यह वायरस दो दिन तक जीवित रहता है। रजनीश भारद्वाज ने बताया कि ड्रापलेट तो जल्दी सूख जाती है पर उसमें एक थिन फिल्म (पानी की हल्की परत) जीवित रहती है। यह पानी की परत जल्दी सूखती नहीं है। जिससे वायरस के जीवित रहने की संभावना रहती है। यह थिन फिल्म आंखों से दिखाई नहीं देती है। यह एक रहस्य की तरह का मामला था जहां ये दिख रहा था कि ड्रापलेट कुछ मिनट या सेकेंड में सूख जाती है पर वायरस जीवित रहता है। ऐसे में पानी की हल्की परत ने इस मामले को सुलझाया है। इसके लिए हमने कंप्यूटर सिमुलेशन का प्रयोग किया।

आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर रजनीश भारद्वाज ने कहा कि पोरस सरफेस जैसे कि पेपर, कपड़े में वायरस के जल्दी खत्म होने की वजह ड्रापलैट फैल जाती है। इसकी वजह से इसका वाष्पीकरण तेजी से होता है। वहीं ग्लास, स्टैनलैस स्टील आदि में वाष्पीकरण देर से होता है।

आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर रजनीश भारद्वाज ने बताया कि हमने रिसर्च नैनोमीटर वाली लिक्विड लेयर पर किया है। यह सतह पर खास तरह के फोर्स से चिपकती है, इसलिए कोरोना इस सतह पर घंटों जीवित रहता है। उन्होंने बताया कि पतली पर्त वाला मॉडल बताता है कि किसी भी सतह पर पतली पर्त का मौजूद होना और इसका सूखना तय करता है कि इस पर वायरस कितनी देर तक रहेगा।

ऐसी होनी चाहिए सतह

आईआईटी मुंबई के शोधकर्ता रजनीश भारद्वाज का कहना है कि हमारे शोध में सामने आया है कि माइक्रोटेक्सचर सरफेस पर वायरस मौजूदा सरफेस की तुलना में कम देर तक जिंदा रहेगा। इस पर ड्रापलेट जल्दी सूख जाती है। उदाहरण के तौर पर यदि स्मूथ सरफेस पर वायरस 12 घंटे तक जीवित रहता है तो माइक्रोटेक्सचर सरफेस पर यह छह घंटे तक जीवित रहेगा। इस बात को एक कमल के पत्ते के उदाहरण से समझ सकते हैं। कमल के पत्ते की सतह माइक्रोटेक्सचर होती है इसलिए यह हमेशा साफ रहता है। यही नहीं इसकी सतह बेहद जल्दी सूखती है। मोटे तौर पर कहा जाए तो वायरस को किसी सतह पर मारने के लिए माइक्रोटेक्सचर बनाने होंगे। इन सरफेस को एंटीवायरल सरफेस कहा जाता है।

उन्होंने बताया कि भौतिक विज्ञान के संदर्भ में, सॉलिड लिक्विड इंटरफेसियल एनर्जी को हमारे द्वारा प्रस्तावित सरफेस इंजीनियरिंग के कॉम्बिनेशन से बढ़ाया जा सकता है। इससे पतली फिल्म के पतली फिल्म के भीतर आसन्न दबाव बढ़ेगा। इससे पतली फिल्म के सूखने की गति तेज होगी।

किस तरह के माइक्रोटेक्सचर बेहतर

रजनीश भारद्वाज ने बताया कि लंबे और कम दूरी वाली माइक्रोटेक्सचर सतह सबसे अधिक प्रभावी होती है। लंबे और ज्‍यादा दूरी वाली सरफेस इसके मुकाबले कम प्रभावशाली होती है। छोटी और ज्‍यादा दूरी वाली सतह इन दोनों के मुकाबले कम असरकारक होती है

ये दिए सुझाव

-ग्लास, लैमिनेट वुड को पोरस मैटीरियल जैसे कि कपड़ा या पेपर से कवर करने से वायरस के सतह पर ट्रांसमिशन होने का खतरा कम हो जाता है।

-कार्यालय और अस्पतालों में फर्नीचर और अन्य सामानों के प्रयोग में इस बात को ध्यान में रख कार्य किया जा सकता है।

-पार्क, शॉपिंग मॉल, रेस्तरां, रेलवे और एयरपोर्ट में भी सामानों के इस्तेमाल में इस बात को जेहन में रख कार्य किया जा सकता है कि किस मैटीरियल में वायरस कितने समय तक जीवित रहता है।

-वैज्ञानिकों ने सुझाव दिए हैं कि चूंकि स्कूलों में नोटबुक का आदान-प्रदान होता है और बैंक में करेंसी का। ऐसे में यहां पर भी इन बातों को ध्यान में रख नीति बनाई जा सकती है।


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