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CJI के खिलाफ महाभियोग का मामला उठाकर राजनीतिक लाभ पाना चाहती है कांग्रेस

हमें समझना होगा कि कांग्रेस की रुचि इस मामले में इसलिए नहीं है, क्योंकि यह जस्टिस लोया की मौत का मामला था। दरअसल कांग्रेस इसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ राजनीतिक लाभ के लिए भुनाना चाहती थी

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 23 Apr 2018 12:01 PM (IST)Updated: Mon, 23 Apr 2018 02:52 PM (IST)
CJI के खिलाफ महाभियोग का मामला उठाकर राजनीतिक लाभ पाना चाहती है कांग्रेस
CJI के खिलाफ महाभियोग का मामला उठाकर राजनीतिक लाभ पाना चाहती है कांग्रेस

शिवानंद द्विवेदी जस्टिस बीएच लोया की मौत का मामला एकबार फिर सुर्खियों में है। इस मामले में कुछ तथ्य गौर करने वाले हैं। जब नवंबर 2017 में जस्टिस लोया का मामला पहली बार चर्चा में आया तब उनकी मृत्यु के तीन साल हो चुके थे। यह मामला ठीक उस दौरान चर्चा में लाया गया जब गुजरात में विधानसभा चुनाव अंतिम दौर में थे। एक पत्रिका में छपे लेख में जस्टिस लोया की मौत को उनकी बहन के हवाले से संदिग्ध बताते हुए सोहराबुद्दीन मामले से जोड़ने की कोशिश की गई। आज फिर यह मामला इसलिए चर्चा में है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस लोया की मौत की एसआइटी जांच के लिए दायर याचिकाओं को उनकी मृत्यु के दौरान उनके साथ रहे चार चश्मदीदों के बयानों के आधार पर खारिज कर दिया है।

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मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग

सर्वोच्च अदालत में तीन जजों की एक पीठ ने इन याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा है कि जस्टिस लोया की मौत प्राकृतिक रूप से हुई और जस्टिस लोया की तबियत बिगड़ने के समय उनके साथ रहे जजों के बयान को न मानने का कोई कारण नहीं है। साथ ही कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा कि राजनीति की लड़ाई राजनीति के मैदान में होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद कांग्रेस ने इस मसले पर न्यायपालिका के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए कांग्रेस की अगुआई में कुछ दलों ने उपराष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का नोटिस थमा दिया है। हमें समझना होगा कि कांग्रेस की रुचि इस मामले में इसलिए नहीं है, क्योंकि यह जस्टिस लोया की मौत का मामला था।

हृदयाघात जस्टिस लोया की मौत 

दरअसल कांग्रेस इसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ राजनीतिक लाभ के लिए भुनाना चाहती थी, लेकिन अदालत में तथ्यों के धरातल पर यह मामला टिक नहीं पाया। गौरतलब है कि इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं दाखिल की गईं उनमें एक याचिका कांग्रेस नेता तहसीन पुनावाला की भी थी। जस्टिस लोया की मौत 1 दिसंबर, 2014 को हृदयाघात से तब हुई थी, जब वे अपने किसी दोस्त के घर शादी समारोह में शामिल होने नागपुर गए थे। उस घटना के तीन साल बाद एक पत्रिका ने अचानक से एक लेख के जरिये ऐसी बहस चला दी मानो जस्टिस लोया की मौत कोई साजिश हो। पत्रिका में यह लेख छपने के बाद गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस ने इस मामले को खूब उठाया और अमित शाह के खिलाफ माहौल बनाने में इस रिपोर्ट का भरपूर उपयोग किया।

कांग्रेस का यह इतिहास

हालांकि उसी दौरान एक अंग्रेजी समाचार पत्र ने जस्टिस लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली उस रिपोर्ट की तहकीकात करके जो रिपोर्ट प्रकाशित की, वह बिल्कुल उलट थी। बॉम्बे हाईकोर्ट के दो जजों, जस्टिस भूषण और जस्टिस सुनील जो वहां मौजूद थे, ने जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत की दलील को खारिज किया। उन्होंने कहा कि वे खुद अस्पताल गए थे और चश्मदीद रहे। कांग्रेस का यह इतिहास रहा है कि उसने सत्ता में रहते हुए लोकतंत्र के मूल्यों का नुकसान किया है और विपक्ष में रहते हुए भी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सवाल उठाकर अपनी राजनीति को साधने का काम किया है। चाहें चुनाव परिणाम आने के बाद चुनाव आयोग पर सवाल उठाना हो या चुनाव हारने पर खुद के द्वारा लागू ईवीएम प्रणाली पर सवाल उठाना हो अथवा गाहे-बगाहे सेना पर सवाल उठाना हो, कांग्रेस ने हर मौके पर देश की स्वायत्त संस्थाओं के खिलाफ माहौल तैयार करने की कोशिश की है।

कांग्रेस नहीं चाहती रामजन्म भूमि मामले का हल

सर्वोच्च न्यायालय में राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई हो रही है। राम जन्मभूमि मामले पर भी कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के कुछ महीने पहले आए ‘सुनवाई रोकने’ वाले बयान से यह साफ हो गया था कि कांग्रेस नहीं चाहती कि राम जन्मभूमि मामला निष्कर्ष पर पहुंचे। ऐसे में इस पूरे प्रकरण में एक कारण यह भी है कि कांग्रेस सीधे तौर पर राम जन्मभूमि मामले पर टिप्पणी न करते हुए बार-बार चीफ जस्टिस के खिलाफ वातावरण तैयार करने की कोशिश कर रही है। सहमति-असहमति लोकतंत्र में स्वीकार्य है। ऐसा संभव है कि आप न्यायालय के किसी फैसले से सहमत हों या न हों, लेकिन इस असहमति को दर्ज कराने का तरीका यह नहीं हो सकता कि आप न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर ही सीधी चोट करने लगें? कांग्रेस ने हमेशा यही किया है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जब अदालती फैसलों के खिलाफ उसने अपनी सत्ता का बेजा लाभ उठाया है।

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण मामला

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण मामला कांग्रेस के इस चरित्र की सबसे बड़ी नजीर है। 12 जून, 1975 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को गलत करार देते हुए उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया, उस दौर में भी कांग्रेस नेता इंदिरा के बचाव में और न्याय व्यवस्था के खिलाफ नजर आए थे। इंदिरा गांधी ने उस फैसले पर नैतिकता के न्यूनतम मानदंडों का पालन करते हुए आगे का फैसला आने तक पद से हटने के बजाय देश में आपातकाल लागू करना ज्यादा ठीक समझा था। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह घटना इस रूप में दर्ज हुई कि कांग्रेस पार्टी ने एक व्यक्ति की राजनीति और कुर्सी बचाने के लिए अदालत का ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों का भी नुकसान किया था।

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कांग्रेस को नहीं नजर आता परिवर्तन 

कांग्रेस आज विपक्ष में है, लेकिन उसमें कोई परिवर्तन नहीं नजर आता है। आज भी वह उसी राह पर चल रही है, जिस पर इतिहास में चलती रही है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एक पद है। इस पद के कुछ अधिकार होते हैं। ये अधिकार तब भी होते हैं जब कांग्रेस सत्ता में होती है और आज भी हैं जब भाजपा की सत्ता है। अत: उस पद पर आसीन व्यक्ति को उसके विवेकाधिकार से यदि काम भी नहीं करने दिया जाएगा और राजनीतिक मामलों में न्यायपालिका को घसीटा जाएगा तो यह भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है। जस्टिस लोया की मौत पर विवाद पैदा करना, यह साबित करता है कि कांग्रेस राजनीति की लड़ाई जनता के बीच नहीं, बल्कि संस्थाओं पर हमले करके लड़ना चाहती है।

[फेलो, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन]


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