न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ी कर रही कांग्रेस, क्या होगा आगे
दरअसल राहुल गांधी ने अपनी ही पार्टी के उस सदस्य के इस अभियान को मंजूरी दे दी है, जो खुद इसी मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने राम मंदिर मामले की सुनवाई में बाबरी मस्जिद की ओर से वकील हैं।
[उमेश चतुर्वेदी] मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाकर कांग्रेस ने देश की न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा कर दिया है। उसका दावा है कि इससे न्यायपालिका की साख बहाल होगी, लेकिन क्या सचमुच ऐसा होने जा रहा है? दरअसल राहुल गांधी ने अपनी ही पार्टी के उस सदस्य के इस अभियान को मंजूरी दे दी है, जो खुद इसी मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने राम मंदिर मामले की सुनवाई में बाबरी मस्जिद की ओर से वकील हैं। इससे देश में यही संकेत जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की आसन्न हार से बौखलाए कपिल सिब्बल ने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्र ओडिशा के उस ब्राह्मण समाज से आते हैं, जिसकी राज्य की राजनीति में आजादी से लेकर अब तक वर्चस्व रहा है। 1931 के बाद हालांकि जाति आधारित जनगणना नहीं हुई, लेकिन उसी के आंकड़ों पर भरोसा करें तो राज्य में ब्राह्मणों की जनसंख्या करीब छह प्रतिशत है, लेकिन समाज में इस वर्ग का प्रभाव ऐसा है कि राज्य की पूरी राजनीति इन्हीं समुदायों के इर्द-गिर्द घूमती है।
शिक्षा का प्रसार ज्यादा
इसकी वजह यह है कि इस समुदाय में शिक्षा का प्रसार ज्यादा है, लिहाजा प्रशासन और शैक्षिक संस्थानों में इनका जोर है। फिर ओडिशा में स्थानीय राष्ट्रीयता का भी खासा असर है। दीपक मिश्र के देश की न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर पहुंचने को ओडिशा में प्रेरक घटना के तौर पर देखा जाता है। ऐसे में ओडिशा के राजनीतिक दलों को ‘धरती पुत्र’ की अवधारणा के उभरने का डर सता रहा है। यही वजह है कि राज्य के सत्ताधारी बीजू जनता दल ने महाभियोग प्रस्ताव से खुद को अलग कर लिया है। राज्य में अगले साल संसदीय चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य में 1999 से ही सत्ता से दूर कांग्रेस वापसी की कोशिशों में लगी है, लेकिन कपिल सिब्बल के प्रयासों से उसका सपना और दूर होता नजर आ रहा है। इसीलिए राज्य कांग्रेस के नेताओं ने इस प्रस्ताव का विरोध शुरू कर दिया है।
राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता
ऐसे में राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता ही सामने आ रही है। ओडिशा में इसका फायदा अगले विधानसभा चुनाव में अगर भारतीय जनता पार्टी उठा ले तो हैरत नहीं होनी चाहिए। एक बात और ध्यान में रखने वाली है। अतीत में जिन न्यायमूर्तियों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाए गए, उन सब पर कदाचार का आरोप था। सबसे आर्थिक भ्रष्टाचार, पद के दुरुपयोग के जरिये काली कमाई का आरोप था, लेकिन दीपक मिश्र के खिलाफ ऐसा कोई आरोप नहीं है, बल्कि उनके खिलाफ न्यायमूर्ति चेलमेश्वर की अगुआई में चार जजों के 12 जनवरी को दिए सार्वजनिक बयान को आधार बनाया गया है। जिसमें दीपक मिश्र पर र्दुव्यवहार करने, गलत फैसले देने का आरोप है।
मनमाफिक फैसले ना देने से कांग्रेस नाराज
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन पर महाभियोग प्रस्ताव तब लाया गया, जब जज लोया की मृत्यु की जांच कराने की मांग को उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने खारिज कर दिया। ऐसे में संकेत यही जा रहा है कि मनमाफिक फैसले ना देने से कांग्रेस नाराज है। जब न्यायिक प्रक्रिया में पुनर्विचार याचिका दायर करने का उपचारात्मक उपाय है तो उसे क्यों नहीं अपनाया गया। इसलिए कांग्रेस विरोधियों को लगता है कि राममंदिर मामले में हिंदू समाज के पक्ष में आने वाले संभावित फैसले को रोकने के लिए यह महाभियोग लाया गया है। इसे दीपक मिश्र पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। आजादी के इकहत्तर सालों में भारतीय राजनीति की जिस तरह साख घटी है, उसके चलते न्यायपालिका पर ही लोगों का भरोसा ज्यादा है। विपक्षी दलों के कदम के बाद यह बनी रह पाएगी, कहना मुश्किल है।
[वरिष्ठ पत्रकार]
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