बजट बिगुल: 'त्रिशंकु' बने हजारों कस्बों में स्लम जैसा जीवन बसर कर रहे लोग, शहरी निकाय से वास्ता नहीं और ग्राम पंचायतें पूछती नहीं
गांव से निकल कर कस्बों में बसी जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। उसे न तो गांव जैसी साधारण सुविधा मिल पा रही है और न ही शहरों जैसी सहूलियतें। स्लम जैसे हालत में गुजर कर रहे ऐसे लोगों की मुश्किलें और चुनौतियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं।
सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली: न गांव का सुख है और न ही शहर की सहूलियत। शहरीकरण की अंधी दौड़ में कुछ यूं फंसे कि त्रिशंकु ने कस्बों में फंस गए हैं। गांव से निकल कर कस्बों व बाजार में बसी जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। उसे न तो गांव जैसी साधारण सुविधा मिल पा रही है और न ही शहरों जैसी सहूलियतें। स्लम जैसे हालत में गुजर बसर कर रहे ऐसे लोगों की मुश्किलें और चुनौतियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। आम जीवन के लिए जिन मूलभूत सुविधाओं की जरूरत होती है उन्हें यहां नसीब नहीं हो रही हैं। गांवों और शहरों के बीच त्रिशंकु बनी ऐसी बड़ी आबादी के लिए आगामी वित्त वर्ष 2022-23 के आम बजट में कुछ बड़ी राहत की घोषणा की उम्मीद है।
मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर विचार
गांवों की मुश्किलों से पलायन कर शहरों की ओर मुखातिब होने वाली जनता के ट्रेंड को लेकर सर्वेक्षण जरूर होते रहे हैं, लेकिन सरकार के पास ताजा वास्तविक आंकड़े नहीं हैं। इसीलिए आगामी जनगणना में इसे शामिल किया गया है ताकि समस्या की गंभीरता को देखते हुए उसके समाधान के बारे में नीतिगत निर्णय लिए जा सकें। पिछले दिनों नीति आयोग में शहरी विकास मंत्रालय के साथ ग्रामीम विकास और पंचायती राज मंत्रालय के केंद्र व राज्य सरकारों के आला अफसरों के बीच गहन विचार-विमर्श किया गया। इस दौरान ऐसे गैर अधिसूचित कस्बों को विकसित करने और उन्हें मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर विचार किया गया।
गांव के निकलकर कस्बों में फसे
कोविड-19 की वजह से वर्ष 2021 में प्रस्तावित जनगणना नहीं हो सकी है, जिसे आगे बढ़ा दिया गया है। इसी जनगणना में गांव शहरों की विशुद्ध आंकड़े प्राप्त होंगे, जिसमें इनकी सामाजिक व आर्थिक दशा का भी खुलासा होगा। गांव के निकलकर आसपास अस्त व्यस्त कस्बों में बसने वाले शहरों जैसी सुविधा के मोह में फंस गए। लेकिन न वहां गांव जैसी सादगी और सामान्य सुविधाएं हैं और न शहरों जैसी अन्य सहूलियतें। ग्राम पंचायतों की सुविधाएं भी इन कस्बों में नहीं हैं। अधिसूचित कस्बा अथवा नगर क्षेत्र न होने की वजह से यहां नगर निकाय जैसे फंड नहीं मिल पा रहे हैं। इसके अभाव में यहां के लोग स्लम जैसी हालत में रहने को मजबूर हैं।
गांवों के मुकाबले अधिक शहर बसे
वर्ष 2011 की जनगणना के नतीजे बताते हैं कि उस समय देश में शहरों की संख्या तेजी से बढ़ी थी। रिपोर्ट के मुताबिक देश में गांवों के मुकाबले अधिक शहर बसे हैं। देश की हिंदी वाले राज्यें में बेचिरागी गांवों की संख्या बढ़ी है, यानी ऐसे गांवों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जहां की शत प्रतिशत आबादी पलायन कर चुकी है। जिस रोजगार की तलाश में लोग पलायन कर रहे थे, उसी ट्रेंड पर काबू पाने के लिए मनरेगा जैसी योजना से बड़ी उम्मीदें थी। उसका नतीजा आगामी जनगणना में प्राप्त हो सकता है।पिछली जनगणना में पता चला कि देश में 2400 नए शहर इन्हीं त्रिशंकु कस्बों को जोड़कर बने थे। भारत में शहरीकरण की रफ्तार दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा है। शहरों की आबादी 39 फीसद की दर से बढ़ी थी। बी श्रेणी के शहर इसी कटेगरी में आते हैं।
2010 के बाद से शहरीकरण की रफ्तार हुई तेज
हिंदी पट्टी के राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा शहर इनमें शामिल हुए। शहरी विकास के जानकारों की मानें तो वर्ष 2010 के बाद से देश में शहरीकरण की रफ्तार और तेज हुई है। माना जा रहा है कि गांव से शहरों की ओर पलायन करने वाले रास्ते में अटकी आबादी को शहरी सहूलियतें व सुविधाएं मिल सकती हैं। देश में फिलहाल चार तरह के शहरी निकाय वर्गीकृत किए गए हैं। इनमें पहला साधारण टाऊन हैं, जिनकी आबादी 20 हजार से लेकर एक लाख के बीच होती है। देश में फिलहाल ऐसे शहरों की संख्या 3587 है। जबकि क्लास वन टाऊन की आबादी एक लाख से दस लाख के बीच होती है। ऐसे शहरों की संख्या 468 है। इन शहरों में कुल 26 करोड़ 49 लाख लोग रहते हैं। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित है। मिलियन प्लस टाऊन में 10 लाख से एक करोड़ की आबादी रहती है। ऐसे शहरों की संख्या 53 है, जिसमें 16 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। देश में तीन मेगा सिटी भी हैं, जिनमें एक करोड़ से अधिक आबादी रहती है। इनमें मुंबई, दिल्ली और कोलकाता प्रमुख हैं। शहरों की यह संख्या पुरानी जनगणना पर आधारित है, जबकि शहरों की संख्या में इजाफा हुआ है।