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Book Review : आम आदमी तक पहुंचने में स्थानीय राजनीति और भ्रष्टाचार से संघर्ष करती सरकारी योजनाओं की कथा

यह पुस्तक एक प्रमुख सरकारी योजना के बहाने उस स्थानीय राजनीति और जाति-वर्ण व्यवस्था पर चोट करती है जो वंचित वर्गों के विकास में बाधक बनी हुई है। नौ अध्यायों में बंटी यह पुस्तक शोध आधारित होते हुए भी किस्सागोई के अंदाज में लिखी गई है।

By Neel RajputEdited By: Published: Sun, 23 Jan 2022 09:56 AM (IST)Updated: Sun, 23 Jan 2022 09:56 AM (IST)
Book Review : आम आदमी तक पहुंचने में स्थानीय राजनीति और भ्रष्टाचार से संघर्ष करती सरकारी योजनाओं की कथा
मनरेगा से जुड़े संघर्ष की कथा (दैनिक जागरण)

संजीव कुमार झा। एक दशक से कुछ पहले की बात है। पश्चिमी दिल्ली के जनकपुरी इलाके में एक इलेक्ट्रीशियन का खोखा (जैसा कि लेखक कहते हैं) या छोटी-सी दुकान होती है। दुकान के ठीक बगल में एक आधुनिक साइबर कैफे है। साक्षर और निरक्षर के बीच का वह युवा इलेक्ट्रीशियन युवा लड़के-लड़कियों को उस साइबर कैफे में आते-जाते, कभी हाथों में कुछ पेपर लिए हुए तो कभी खाली हाथ हंसते-चहकते या मायूस निकलते देखता रहता। एक दिन उत्सुकतावश वह साइबर कैफे के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता है, यह देखने के लिए कि आखिर उस कैफे में चल क्या रहा है। साइबर कैफे का मालिक उसे पहचानता है, इसलिए वह पूूछता है कि उसे क्या काम है।

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नौजवान कहता है कि वह बस देख रहा है। इस बीच, कैफे से एक ग्राहक निकलता है तो वह चुपके से अंदर उसकी कुर्सी पर जाकर बैठ जाता है। वह यूं ही बेचैनी में कंप्यूटर के माउस को इधर-उधर घुमाकर जानने की कोशिश करता है कि उससे होता क्या है। इसी कोशिश में उससे एक गोल चकरी (गूगल के आइकन) पर क्लिक होता है और एक नई दुनिया के दरवाजे हमेशा के लिए उसके सामने खुल जाते हैं। दुकान का मालिक उसे बाहर निकलने को कहता है तो वह दो मिनट की मोहलत मांगते हुए उस चकरी से सामने आए विंडो में सबसे पहले उस समय के सबसे प्रचलित शब्दों में एक 'मनरेगा' टाइप करता है। उसमें पहले बिहार, फिर मुजफ्फरपुर और फिर अपने गांव का नाम टाइप करने के साथ ही उसके सामने उस गांव में मनरेगा में भ्रष्टाचार की ऐसी परतें उघड़ती चली जाती हैं कि समाज के निचले पायदान पर खड़े जिस अंतिम आदमी के साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में चंपारण से अपनी तरह के पहले सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी, उसी चंपारण से करीब 100 किमी दूर, ठीक 100 वर्ष बाद एक नई क्रांति जन्म ले लेती है। उस क्रांति का नाम है 'बिहार मनरेगा वाच'।

अपनी पुस्तक 'लास्ट अमंग इक्वल्स' में बिहार में रिसर्च के लिए बिताए अपने दिनों और संजय साहनी नामक इस नौजवान, जो उत्सुकता में किए एक क्लिक के चलते इलेक्ट्रीशियन से एक बड़ी सामाजिक क्रांति का सूत्रधार बन जाता है, के अनुभवों के आधार पर लेखक एमआर शरण ने मनरेगा जैसे कार्यक्रमों की जरूरत, उसके क्रियान्वयन में हीलाहवाली और उसमें सहज रूप से पैबंद राजनीति पर गहरी चोट की है। यह पुस्तक राजनीतिक रूप से सदियों से बेहद सशक्त रहे बिहार की उस सामंती व्यवस्था का जीवंत चित्रण पेश करती है, जिसमें सामाजिक योजनाओं को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार ग्राम प्रधानों की राजनीति हावी हो जाती है। कुल मिलाकर, यह सिर्फ बिहार की बात नहीं है। मनरेगा जैसी देशव्यापी योजनाओं का जितना फायदा हाल के कुछ वर्षों में आम आदमी तक पहुंचा है, उसे देखते हुए इसमें स्थानीय राजनीति के रास्ते भ्रष्टाचार की बेलें भी खूब पनपी-बढ़ी हैं। यह पुस्तक मनरेगा की नहीं, बल्कि मनरेगा के बहाने उस स्थानीय राजनीति, जाति-वर्ण व्यवस्था और ऊंच-नीच के भेद पर चोट करती है जो समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के विकास की राह में बाधक बने हुए हैं।

यह पुस्तक इस बात का जीवंत प्रमाण है कि सरकार के प्रयासों से किस तरह एक संपूर्ण सामाजिक क्रांति की नींव रखी जा सकती है। नौ अध्यायों में बंटी यह पुस्तक शोध आधारित होते हुए भी किस्सागोई के अंदाज में लिखी गई है। यह पुस्तक जातिवाद और क्षुद्र राजनीति के उस संगम से भी पाठकों को रूबरू कराती है, जो सरकारी योजनाओं का लाभ आम आदमी तक नहीं पहुंचने देता है। गांव स्तर की राजनीति को समझने और उसके नफा-नुकसान को समझने वालों के लिए यह पुस्तक सहेजने योग्य है।

पुस्तक : लास्ट अमंग इक्वल्स

लेखक : एमआर शरण

प्रकाशक : वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड

मूल्य : 599 रुपये


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