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जन्मदिन : याद आए गुरुदत्त और संजीव कुमार

नई दिल्ली। यह महज इत्तेफाक नहीं कि भारतीय सिनेमा का दो नायाब कलाकारों का जन्म एक ही दिन यानी नौ जुलाई को हुआ। दोनों बेशकीमती हीरे। एक ओर जहां गुरुदत्त ने भारतीय सिनेमा को नया आयाम दिया, वहीं संजीव कुमार ने अपनी बेमिसाल अदाकारी से अभिनय के मायने ही बदल दिए। शायद इसीलिए ऊपरवाले ने इन दोनों के लिए जन्म का एक ही दिन मुकर्रर किया।

By Edited By: Published: Mon, 09 Jul 2012 11:04 AM (IST)Updated: Mon, 09 Jul 2012 11:42 AM (IST)
जन्मदिन : याद आए गुरुदत्त और संजीव कुमार

नई दिल्ली। यह महज इत्तेफाक नहीं कि भारतीय सिनेमा का दो नायाब कलाकारों का जन्म एक ही दिन यानी नौ जुलाई को हुआ। दोनों बेशकीमती हीरे। एक ओर जहां गुरुदत्त ने भारतीय सिनेमा को नया आयाम दिया, वहीं संजीव कुमार ने अपनी बेमिसाल अदाकारी से अभिनय के मायने ही बदल दिए। शायद इसीलिए ऊपरवाले ने इन दोनों के लिए जन्म का एक ही दिन मुकर्रर किया। गुरुदत्त की आज (नौ जुलाई) 87वीं और संजीव कुमार की 74वीं जयंती है।

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काश! कुछ और जीते गुरुदत्त

हिंदी सिनेमा में गुरु दत्त का मुकाम सबसे अलहदा है, जिन्हें पूरी दुनिया आज भी याद करती है। वह एक ऐसे ठहरे हुए इंसान और सुलझे हुए फिल्मकार थे, जो कामयाबी पर इतराते नहीं थे और नाकामी से घबराते नहीं थे। गुरुदत्त का जन्म नौ जुलाई, 1925 को कर्नाटक के दक्षिण कनारा जिले में हुआ। उनका पूरा नाम वसंत कुमार शिवशकर पादुकोण था। बचपन में आर्थिक दिक्कतों और पारिवारिक परेशानियों के कारण गुरुदत्त मुश्किल से तालीम हासिल कर पाए। शुरुआत में उन्होंने कोलकाता में एक टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की, हालाकि बाद में वह यह नौकरी छोड़कर अपने माता-पिता के पास मुंबई लौट आए। अपने चाचा की मदद से उन्होंने पुणे स्थित प्रभात फिल्म कंपनी में तीन साल के अनुबंध पर नौकरी हासिल की। यहीं से वह कुछ फिल्मी हस्तियों के संपर्क में आए। उनकी देव आनंद से पहली मुलाकात यहीं हुई। बाद में वह फिर मुंबई लौटे और फिल्म निर्माण एवं अभिनय की शुरुआत की। उन्होंने बतौर निर्देशक पहली फिल्म वर्ष 1951 में बाजी बनाई। इस फिल्म में देवानंद मुख्य भूमिका में थे। इसके बाद फिर उन्होंने देव आनंद के साथ जाल फिल्म बनाई।

गुरुदत्त ने प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम और चौदहवीं का चाद जैसी कई यादगार फिल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ उनकी जोड़ी काफी चर्चित रही। पर्दे के पीछे इन दोनो के रूमानी रिश्ते की भी चर्चा रही। अपनी फिल्म कागज के फूल के नाकाम रहने के बाद दत्त ने कहा था, जिंदगी में यार क्या है? दो ही चीजें हैं कामयाबी और नाकामी। उन्होंने उस वक्त इस दुनिया को अलविदा कहा, जब उनका करियर उफान पर था। 10 अक्तूबर, 1964 को उनका निधन हुआ, उस समय उनकी उम्र महज 39 साल थी। उनकी मौत को लेकर रहस्य है। कुछ लोग इसे खुदकुशी करार देते हैं। उनकी आखिरी फिल्म साझ और सवेरा रही। टाइम पत्रिका ने प्यासा और कागज के फूल को 100 सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया। सीएनएन ने उन्हें एशिया के 25 सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में शामिल किया। भारद्वाज कहते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि प्यासा शानदार फिल्म है। यह अपने आप में एक संपूर्ण फिल्म है। कागज के फूल बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही थी, लेकिन वह भी एक बेहतरीन फिल्म थी।

तेरे बिना जिंदगी है लेकिन..

संजीव कुमार का जन्म मुंबई में 9 जुलाई 1938 को एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। वह बचपन से हीं फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करने का सपना देखा करते थे। इसी सपने को पूरा करने के लिए वह अपने जीवन के शुरूआती दौर मे रंगमंच से जुड़े और बाद में उन्होंने फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। इसी दौरान वर्ष 1960 में उन्हें फिल्मालय बैनर की फिल्म हम हिन्दुस्तानी में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला। वर्ष 1962 में राजश्री प्रोडक्शन की निर्मित फिल्म आरती के लिए। उन्होंने स्क्त्रीन टेस्ट दिया जिसमें वह पास नही हो सके। सर्वप्रथम मुख्य अभिनेता के रूप में संजीव कुमार को वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म निशान में काम करने का मौका मिला। वर्ष 1960 से वर्ष 1968 तक संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म हम हिंदुस्तानी के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने स्मगलर, पति-पत्‍‌नी, हुस्न और इश्क, बादल, नौनिहाल और गुनहगार जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।

वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म शिकार में वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखाई दिए। यह फिल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेन्द्र पर केन्द्रित थी फिर भी सजीव कुमार धर्मेन्द्र जैसे अभिनेता की उपस्थिति में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म संघर्ष में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन संजीव कुमार अपनी छोटी सी भूमिका के जरिए दर्शकों की वाहवाही लूट ली। इसके बाद आशीर्वाद, राजा और रंक, सत्याकाम और अनोखी रात जैसी फिल्मों में मिली कामयाबी के जरिए संजीव कुमार दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए जहा वह फिल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म खिलौना की जबर्दस्त कामयाबी के बाद संजीव कुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1970 में ही प्रदर्शित फिल्म दस्तक में उनके लाजवाब अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कि या गया। वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म कोशिश में उनके अभिनय का नया आयाम दर्शकों को देखने को मिला। फिल्म कोशिश में गूंगे की भूमिका निभाना किसी भी अभिनेता के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। बगैर संवाद बोले सिर्फ आखों और चेहरे के भाव से दर्शकों को सब कुछ बता देना संजीव कुमार की अभिनय प्रतिभा का ऐसा उदाहरण था जिसे शायद ही कोई अभिनेता दोहरा पाए।

फिल्म कोशिश में संजीव कुमार अपने लड़के की शादी एक गूंगी लड़की से करना चाहते है और उनका लड़का इस शादी के लिए राजी नहीं होता है। तब वह अपनी मृत पत्‍‌नी की दीवार पर लटकी फोटो को उतार लेते हं। उनकी आखों में विषाद की गहरी छाया और चेहरे पर क्त्रोध होता है। इस दृश्य के जरिए उन्होंने बिना बोले ही अपने मन की सारी बात दर्शकों तक बडे़ ही सरल अंदाज में पहुंचा दी थी। इस फिल्म में उनके लाजवाब अभिनय के लिए उन्हें दूसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

खिलौना, दस्तक और कोशिश जैसी फिल्मों की कामयाबी से संजीव कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा बैठे। ऐसी स्थिति में किसी अभिनेता के सामने आती है तो वह मनमानी करने लगता है और फ्रेम दर फ्रेम छा जाने की उसकी प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। जल्द ही वह किसी खास इमेज में भी बंध जाता है, लेकिन संजीव कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नहीं बंधे इसलिए अपनी इन फिल्मों की कामयाबी के बाद भी उन्होंने फिल्म परिचय में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार की और उससे भी वह दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे। इस बीच सीता और गीता, अनामिका और मनचली जैसी फिल्मों में अपने रूमानी अंदाज के जरिए वह जवा दिलों की धड़कन भी बने। वर्ष 1974 में प्रदर्शित फिल्म नया दिन नयी रात में संजीव कुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले इस फिल्म में उन्होंने नौ अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी। यूं तो यह फिल्म उनके हर किरदार की अलग खासियत की वजह से जानी जाती है लेकिन इस फिल्म में उनके एक हिजड़े का किरदार आज भी फिल्मी दर्शकों के मस्तिष्क पर छा जाता है।

फिल्म कोशिश और परिचय की सफलता के बाद गुलजार संजीव कुमार के पसंदीदा निर्देशक बन गए। बाद में संजीव कुमार ने गुलजार के निर्देशन में आधी, मौसम, नमकीन और अंगूर जैसी कई फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया। वर्ष 1982 में प्रदर्शित फिल्म अंगूर में संजीव कुमार की दोहरी भूमिका शायद हीं कोई भूल पाए।

अभिनय मे एकरूपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए संजीव कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्त्रम में वर्ष 1975 में प्रदर्शित रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म शोले में वह फिल्म अभिनेत्री जया भादुड़ी के ससुर की भूमिका निभाने से भी नही हिचके। हालाकि संजीव कुमार ने फिल्म शोले के पहले जया भादुडी के साथ कोशिश और अनामिका में नायक की भूमिका निभाई थी। वर्ष 1977 में प्रदर्शित फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में उन्हें महान निर्देशक सत्यजीत रे के साथ काम करने का मौका मिला। इस फिल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शकों का मन मोहे रखा। इसके बाद संजीव कुमार ने मुक्ति (1977),त्रिशूल (1978) पति पत्‍‌नी और वो (1978) देवता (1978),जानी दुश्मन (1979), गृहप्रवेश (1979), हम पाच (1980), चेहरे पे चेहरा (1981), दासी(1981), विधाता (1982), नमकीन (1982), अंगूर (1982) और हीरो (1983) जैसी कई सुपरहिट फिल्मों के जरिए दर्शकों के दिल पर राज किया।

संजीव कुमार को मिले सम्मान की चर्चा की जाए तो वह दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म आधी के लिए सबसे पहले उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। इसके बाद वर्ष 1976 में भी फिल्म अर्जुन पंडित मं बेमिसाल अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए। छह नवंबर 1985 को संजीव कुमार को दिल का गंभीर दौरा पड़ा और इस दुनिया से उन्होंने हमेशा के लिए विदाई ले ली।

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