Ayodhya verdict 2019: न्यायपालिका और राम मंदिर, जब इलाहाबाद कोर्ट ने सुनाया था फैसला
यह ठीक है कि हर मुकदमे का फैसला एक निश्चित सीमा अवधि के अंतर्गत और तात्कालिक रूप से नहीं किया जा सकता लेकिन कुछ विवाद ऐसे होते हैं।
नई दिल्ली। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या में विवादित 2.77 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को लेकर जो फैसला दिया है, वह फैसला अगर समय पर दे दिया जाता तो देश को जिस दुर्दशा को देखना पड़ रहा है, हो सकता है कि वह सब कुछ नहीं देखना पड़ता। देर से दिया जाने वाला न्याय समाज के लिए कितना बड़ा अभिशाप सिद्ध को सकता है-कम से कम इस बात का एहसास अब तो भारतीय न्यायपालिका को हो ही जाना चाहिए।
कुछ विवाद ऐसे जिनका राष्ट्र और समाज से संबंध
यह ठीक है कि हर मुकदमे का फैसला एक निश्चित सीमा अवधि के अंतर्गत और तात्कालिक रूप से नहीं किया जा सकता, लेकिन कुछ विवाद ऐसे होते हैं, जिनका संबंध राष्ट्र और समाज से तथा राष्ट्र की भावनाओं से होता है और यदि इस तरह के विवादों के फैसले में देरी होगी तो मिलकर राष्ट्र गंभीर संकट में फंस जाएगा। न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह राष्ट्र को कम से कम गंभीर संकटों से तो अवश्य ही बचाए। जो विवाद देश की भावनाओं से संबंधित हैं और जिनका संबंध समाज की आस्था है, उन विवादों को यदि न्यायपालिका द्वारा महत्व देकर सक्रियता से निर्णीत नहीं किया जाएगा तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
अपने पूर्वजों पर होना चाहिए गौरव
राम राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय स्वाभिमान, राष्ट्रीय आदर्शों और श्रेष्ठ मानव मूल्यों के प्रतीक हैं। उन पर समस्त राष्ट्र को गौरव होना चाहिए। जो राम को राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान का प्रतीक नहीं मानते, उन्हें सच्चा भारतीय नहीं कहा जा सकता-चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, पारसी हों या यहूदी या कोई अन्य धर्मावलंबी। भारत में रहने वाले को अपने पूर्वजों पर गौरव होना चाहिए। भारतीय हो कर भी जो व्यक्ति अपने पूर्वजों पर गर्व नहीं कर सकता, वह सच्चा भारतीय नहीं है। राम, कृष्ण और इसी प्रकार की अनेक महान विभूतियां हमारी पूर्वज हैं, हम उनसे प्रेरणा लेते रहे हैं, लेते हैं और आगे भी लेंगे।
आने वाली पीढ़ी यदि अपने श्रेष्ठतम पूर्वजों से प्रेरणा नहीं लेगी, उनका सम्मान करना नहीं जानेगी तो ऐसी पीढ़ी भारतीय होते हुए भी अभारतीय होगी। जो भारतीय है, वह कभी भी राम के प्रति अनादर का भाव रख ही नहीं सकता और न राम जन्मस्थल के प्रति अनादर का भाव प्रदर्शित कर सकता है। राम केवर्ल हिंदुओं के ही प्रतीक नहीं हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कुछ लोग विशेष रूप से इस्लाम के अनुयायी राम के प्रति उस प्रकार आदर भाव नहीं रखते जैसा र्कि हिंदू रखते हैं, लेकिन इससे भी कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।
पूर्वजों के प्रति नमन
कोई सत्य को पहचानने से इन्कार कर दे, कोई सूर्य को पहचानने से इन्कार कर दे तो इससे न तो सत्य असत्य तो सकता है न सूर्य का प्रकाश कम हो सकता है। सच तो यह है कि इस राष्ट्र को राम के प्रति नमन करना ही होगा, तभी यह राष्ट्र भारत वर्ष कहलाएगा। आखिर जब मिस्न अपने पूर्वजों के प्रति, जो कि मुसलमान नहीं थे, नमन कर सकता है। टर्की अपने पूर्वजों के प्रति जो मुस्लिम नहीं थे, नमन कर सकता है। इराक अपने पूर्वजों के प्रति जो मुसलमान नहीं थे, नमन कर सकता है। इंडोनेशिया, जो मुस्लिम बहुल राष्ट्र है, राम का आदर और सम्मान कर सकता है, तब भारतीय एक स्वर से अपने पूर्वजों के प्रति नमन क्यों नहीं करना चाहते।
न्याय का उपहास
इस संदर्भ में जो कुछ हो रहा है, उसे यह कहा जा रहा है कि भारतीय संस्कृति और भारतीयता के साथ न्याय किया जा रहा है। यह तो न्याय नहीं न्याय का उपहास है। जिस प्रकार व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है, उसी प्रकार से राष्ट्र की अस्मिता, राष्ट्र के स्वाभिमान और राष्ट्र की संस्कृति को भी न्याय पाने का अधिकार है। जब तक भारतीयता को, भारतीय संस्कृति को तथा भारतीय स्वाभिमान को न्याय देने के लिए न्यायपालिका आगे नहीं आएगी, वह भारतीय मानसिकता में आज जो विस्फोट हो रहा है, उसे रोक नहीं सकेगी।
भारत सरकार अविलंब राम जन्म भूमि संबंधी विवाद का जो मुख्य कारण है, उसे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निर्णय के लिए भेज दे कि एक निश्चित अवधि के अंदर इस पर निर्णय दिया जाए कि वहां कभी बाबरी मस्जिद बनवाई गई थी, क्या वहां पहले कोई मंदिर था, जिसे गिराकर मीर बकी ने अपनी विजय ध्वजा के रूप में मस्जिद बनवाई?
(13 दिसंबर, 1992 को प्रकाशित संपादकीय)