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राज्यों में फिर से उभरी सीमा विवाद की चुनौती, केंद्र के हस्तक्षेप से जल्द हो समाधान

मिजो शताब्दियों से उन क्षेत्रों का प्रयोग कर रहे हैं जो असम के संवैधानिक सीमा में समझे जाते हैं जबकि असम का इन क्षेत्रों पर दावा बढ़ती आबादी के कारण है। इस इलाके में उत्तर-पूर्व केंद्रित अनेक केंद्रीय योजनाएं चल रही हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 02 Aug 2021 12:09 PM (IST)Updated: Mon, 02 Aug 2021 12:09 PM (IST)
राज्यों में फिर से उभरी सीमा विवाद की चुनौती, केंद्र के हस्तक्षेप से जल्द हो समाधान
ऐसे समय में यदि देश की आंतरिक सुरक्षा चुनौतियां उत्पन्न हो जाएं तो यह स्थिति चिंतनीय होगी।

शाहिद ए चौधरी। भारत में जब सैकड़ों रियासतें थीं तो भूमि-विस्तार या अन्य कारणों से उनके बीच आपस में हिंसक झड़पें होती रहती थीं। वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद भूमि-विवाद अंतरराष्ट्रीय सीमाओं या एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) तक सिमटकर रह गए। हां, स्वतंत्र भारत में दो राज्यों के बीच जल-विवाद व भूमि-विवाद अवश्य हुए हैं (अब भी काफी जगह पर हैं) जिन्हें आयोग, टिब्यूनल, आपसी विचार-विमर्श, अदालत आदि के माध्यम से सुलझा लिया गया या सुलझाने का प्रयास जारी है। अगर कभी किसी भूमि-विवाद (जैसे बेलगाम को लेकर महाराष्ट्र व कर्नाटक के बीच) या जल-विवाद (जैसे कावेरी के जल को लेकर कर्नाटक व तमिलनाडु के बीच) के संबंध में जनता में तनाव व्याप्त हुआ भी तो उसे राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर नियंत्रित कर लिया।

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दो राज्यों के बीच जनता या पुलिस के स्तर पर हिंसक टकराव नहीं होने दिया। इसलिए असम व मिजोरम के पुलिस बलों के बीच जो पिछले दिनों गोलियां चलीं, जिसमें छह पुलिसकर्मी मारे गए, वह अप्रत्याशित और बेहद चिंताजनक है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना अति आवश्यक है कि भविष्य में देश की एकता और अखंडता को कमजोर करने वाली इस प्रकार की घटना फिर कभी न हो। फिलहाल स्थिति यह है कि घटनास्थल के दायरे से दोनों राज्यों की पुलिस लगभग 100 मीटर पीछे हट गई है और वहां केंद्रीय पुलिस बलों की तैनाती कर दी गई है। असम पुलिस ने जो स्थान खाली किया है वहां पर सीआरपीएफ की निगरानी है। दोनों तरफ की बंदूकें भले ही शांत हो गई हैं, लेकिन उस इलाके में स्थिति पूरी तरह से शांत नहीं हुई है। इस हालिया घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में जाने पर यह पता चलता है कि यह विवाद काफी पुराना है।

पिछले लंबे अरसे से जारी संघर्ष के बीच साल 2018 के मुख्य टकराव के बाद यह विवाद अगस्त 2020 में एक बार फिर उभरा, जिसके चलते असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने गृहमंत्री अमित शाह से हस्तक्षेप के लिए आग्रह किया था। इसके बाद स्थिति कुछ हद तक शांत और नियंत्रण में आ गई थी, लेकिन दोनों राज्य एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन करने का आरोप लगाते रहे। इस साल फरवरी में एक बार फिर स्थिति विस्फोटक हो गई थी, जिसने कुछ दिन पहले हिंसक रूप धारण कर लिया। हालांकि उससे दो दिन पहले ही गृहमंत्री अमित शाह ने इस विषय पर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वार्ता की थी।

ध्यान रहे कि असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट और बीजेपी गठबंधन में हैं। दो राज्यों के पुलिस बलों के बीच जो असाधारण व भयावह गोलीबारी हुई है उससे केंद्र को यह अंदाजा हो जाना चाहिए कि अंतरराज्यीय विवादों पर ‘बस यूं ही चलता रहे’ दृष्टिकोण खतरनाक है। असम और मिजोरम विवाद के कुछ तत्वों की आक्रामकता बीते दिनों दो देशों की सीमा पर होने वाले विवाद की तरह दिखी। चूंकि उत्तर-पूर्व अति संवेदनशील क्षेत्र है, इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह भड़की चिंगारियों को शोला न बनने दे, विशेषकर इसलिए कि इस विवाद को चीन भूखी बिल्ली की तरह देख रहा होगा। इस विवाद के केंद्र में सिर्फ अनुमानित ऐतिहासिक सीमा और संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के बीच असहमति ही नहीं है, बल्कि भूमि के लिए आर्थिक प्रतिस्पर्धा भी है, जो उत्तर-पूर्व में गैर-कृषि रोजगार के कारण उत्पन्न हुई है।

मिजो शताब्दियों से उन क्षेत्रों का प्रयोग कर रहे हैं जो असम के संवैधानिक सीमा में समङो जाते हैं, जबकि असम का इन क्षेत्रों पर दावा बढ़ती आबादी के कारण है। इस इलाके में उत्तर-पूर्व केंद्रित अनेक केंद्रीय योजनाएं चल रही हैं। इनकी सफलता का एक पैमाना इनकी रोजगार केंद्रित निवेश आकर्षति करने की क्षमता होनी चाहिए। बहरहाल, हाल की हिंसा बताती है कि उत्तर-पूर्व में इस प्रकार के सीमा विवाद कितने घातक हो सकते हैं। इसलिए केंद्र को चाहिए कि जल्द कोई राजनीतिक समाधान निकाले।

(ईआरसी)


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