दिल्ली-एनसीआर में अगर हो गया AirLock, सांस लेना हो जाएगा मुश्किल
दिल्ली की आबोहवा खराब करने में लैंडफिल साइट्स का बहुत बड़ा योगदान हैं। अवैज्ञानिक तरीके से निर्मित इन कचरा निस्तारण केंद्रों के कारण दिल्ली के तीन छोरों पर कूड़े के पहाड़ खड़े हो गए हैं।
नई दिल्ली, जेएनएन। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का स्तर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। दिल्ली के कई इलाकों में तो सांस लेना मुश्किल हो रहा है। कई जगह सुबह और शाम के समय कोहरा भी देखने को मिल रहा है। हालांकि सर्दियों के आने के साथ इस तरह की बातें बेहद आम हुआ करती हैं। इसकी वजह हवा में मौजूद नमी का होना और हवा की रफ्तार का कम होना होता है। लेकिन यदि खतरनाक स्तर तक पहुंच चुके प्रदूषण स्तर के दौरान हवा की रफ्तार बेहद कम हो जाए, तो स्थिति खराब हो जाती है। सीपीसीबी के मुताबिक, ऐसे हालात को 'एयरलॉक' कहा जाता है। ऐसे में इंसानी शरीर को नुकसान देने वाले वो कण जो हवा में लगातार तैरते रहते हैं एक जगह स्थिर हो जाते हैं, जिससे लोगों को सांस लेने में परेशानी जैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अगर दिल्ली-एनसीआर में हवा की रफ्तार आने वाले दिनों में थम जाती है, तो एयरलॉक के हालात बन सकते हैं।
दैनिक जागरण से बातचीत में सीपीसीबी के सदस्य सचिव ए सुधाकर बताते हैं कि अगर वायु प्रदूषण का औसत इंडेक्स लगातार 48 घंटे तक 400 से ऊपर रहता है और मौसम विभाग अगले कई दिन तक मौसम की स्थिति नहीं सुधरने की चेतावनी भी देता है, तभी उस स्थिति को आपातकालीन करार दिया जाएगा। यही नहीं, उस स्थिति में आवश्यक वस्तुओं की डिलीवरी करने वाले ट्रकों को छोड़कर अन्य सभी ट्रकों का भी दिल्ली में प्रवेश बंद हो जाएगा।
प्रदूषण की वजह
राजधानी में सड़कों व निर्माण स्थलों के आसपास उड़ने वाली धूल भी प्रदूषण के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। दिल्ली सरकार के पर्यावरण एवं वन विभाग द्वारा इसे रोकने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं है। इसका ही नतीजा था कि बीते शुक्रवार को इसकी रोकथाम को लेकर उपराज्यपाल अनिल बैजल ने संबंधित एजेंसियों को जिम्मेदारी सौंपी। क्योंकि जल्द इन धूल को कम करने के उपाय नहीं किए गए तो दिल्ली-एनसीआर में चल रहे निर्माण कार्यों के कारण बढ़ी हुई धूल और सड़क पर यह वाहनों से निकलने वाले हानिकारक पार्टिकल के साथ मिलकर और भी अधिक खतरनाक साबित होगी।
क्या हैं नियम व कानून
दिल्ली सरकार खुद मानती है कि राजधानी में 61 ऐसी निर्माणाधीन साइट्स हैं, जिनके माध्यम से 90 फीसद डस्ट पाल्यूशन पैदा होता है। ऐसी साइटों पर आर्थिक जुर्माने का प्रावधान है और ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए राजस्व विभाग ने चालान भी काटा है। बावजूद इसके विशेषज्ञ मानते हैं कि इस विषय में और अधिक सख्ती की जरूरत है।
कूड़े को जलाने की प्रवृति
खुले में कूड़ा व पत्तियों को जलाने की प्रवृति दिल्ली में प्रदूषण का अहम कारण है। हाल ही में टैरी की ओर से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह से कूड़ा जलाना यहां होने वाले प्रदूषण के लिए 60 फीसद तक जिम्मेदार है। इस प्रदूषण के प्रमुख कारकों में कूड़ा जलाया जाना भी अहम है। आइआइटी, कानपुर की रिपोर्ट के अनुसार राजधानी में होने वाले प्रदूषण में पीएम 10 के स्तर पर 17 फीसद प्रदूषण कचरा जलाने से होता है। एक ओर जहां दिल्ली में विभिन्न मुहानों पर बनी गाजीपुर, ओखला व भलस्वा की लैंडफिल साइटों पर सालभर कूड़े में आग लगी रहती है, वहीं दूसरी ओर दिल्ली के विभिन्न इलाकों में कूड़ा जलाने की प्रक्रिया भी लगातार जारी है। प्रशासन अब ऐसी गतिविधि में जुटे लोगों से निबटने के आर्थिक जुर्माना कर रही है।
दिल्ली की लैंडफिल साइट्स
दिल्ली की आबोहवा खराब करने में लैंडफिल साइट्स का बहुत बड़ा योगदान हैं। अवैज्ञानिक तरीके से निर्मित इन कचरा निस्तारण केंद्रों के कारण दिल्ली के तीन छोरों पर कूड़े के पहाड़ खड़े हो गए हैं, जिनके कारण आसपास रहने वाले लोगों का जीना मुहाल हो गया है। इनसे फैलने वाले प्रदूषण और बदबू से लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है। इन साइटों को हटाने तथा कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करने के लिए स्वयंसेवी संगठनों ने एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं, जिन्होंने समय-समय पर सख्त आदेश भी जारी किए हैं। लेकिन कोई तरकीब काम नहीं आई है।
जब ढह गया कचरे का पहाड़
पिछले साल अक्टूबर में गाजीपुर में कूड़े के पहाड़ के अचानक भरभरा कर ढह जाने से दो लोगों की जान चली गई और इसके कुछ दिनों बाद इस पहाड़ में आग लग गई। इसके बाद एनजीटी ने दिल्ली सरकार समेत संबंधित एजेंसियों को आड़े हाथों लिया था। एनजीटी ने दिल्ली में लैंडफिल साइट की नई जगह तलाशने को भी कहा है। यहां पर यह बात बता देनी जरूरी है कि दिल्ली में कोई भी नई लैंडफिल साइट बनाने से पहले एनजीटी की अनुमति लेना अनिवार्य है। गाजीपुर की घटना के बाद तो ईडीएमसी की तरफ से नई लैंडफिल साइट की तलाश भी जोरों से हो रही है। यहां पर यह भी जान लेना जरूरी है कि वर्ष 1984 में शुरू हुई गाजीपुर लैंडसाइट की क्षमता 2002 में ही पूरी हो गई थी। इसके बाद भी वहां पर कूड़ा डालना जारी रहा था। तीस हेक्टेयर में फैली इस साइट में फिलहाल लगभग 130 लाख टन कचरा जमा है। नियमानुसार गाजीपुर लैंडफिल पहाड़ की ऊंचाई 20 मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए। यही वजह है कि हादसे के बाद एनजीटी ने गाजीपुर पहाड़ की ऊंचाई को कम से कम दस मीटर कम किए जाने को कहा था।