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बेगुनाहों को न्याय दिलाने जज ने छोड़ी नौकरी, करने लगे हैं पैरवी

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने और बेगुनाहों को न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश अनिल गायकवाड़ ने नौकरी छोड़ दी।

By Nancy BajpaiEdited By: Published: Mon, 13 Aug 2018 01:59 PM (IST)Updated: Mon, 13 Aug 2018 02:19 PM (IST)
बेगुनाहों को न्याय दिलाने जज ने छोड़ी नौकरी, करने लगे हैं पैरवी
बेगुनाहों को न्याय दिलाने जज ने छोड़ी नौकरी, करने लगे हैं पैरवी

बिलासपुर,(राधाकिशन शर्मा)।  भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने और बेगुनाहों को न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश अनिल गायकवाड़ ने नौकरी छोड़ दी। जज्बा और जुनून ऐसा कि बीते चार वर्षों से वह वनवासी अंचल के अलावा गांवों में जाकर ग्रामीणों को मुफ्त में कानूनी सलाह भी दे रहे हैं और केस भी लड़ रहे हैं। उन्होंने भोपाल में यूनियन कार्बाइड गैस कांड के दौरान गैस त्रासदी पीड़ित लोगों को राहत दिलाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है। दो साल के भीतर 500 गैस पीड़ितों को उन्होंने मुआवजा भी दिलाया।

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बिलासपुर निवासी जज गायकवाड़ का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। पिता नारायण राव गायकवाड़ डाकघर में तार बाबू के पद पर काम कर रहे थे। मामूली नौकरी करते हुए उन्होंने बेटे को बीएससी व एलएलबी तक की पढ़ाई कराई। उन्होंने शिक्षक पद के लिए डीइओ कार्यालय में आवेदन दे दिया। उनकी नियुक्ति उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर हुई। वर्ष 1979 में सरगुजा के वाड्रफनगर हायर सेकेंडरी स्कूल में पहली पोस्टिंग हुई। एक साल के भीतर उनका तबादला सीतापुर स्कूल में हो गया। वार्षिक परीक्षा के दौरान विधायक के बेटे को गणित के पर्चे में नकल करते पकड़ लिया और मामला बना दिया। इससे नाराज विधायक ने पहुंच विहीन गांव ओड़गीखोर के हायर सेकेंडरी स्कूल में तबादला करा दिया।

शिक्षक के पद पर नौकरी करते-करते उन्होंने ग्रामीणों की समस्याओं को करीब से देखा। उनके लिए कुछ करने की ठानी। इसके लिए उस जगह पर पहुंचना था, जहां से नियम-कानून का डंडा लहराया जा सके। एलएलबी की डिग्री तो उनके पास थी ही। उन्होंने सिविल जज बनने की ठानी। तीसरे प्रयास में वे सफल हो गए। वर्ष 1988 में सिविल जज बने। कुर्सी संभालते ही उन्होंने मन ही मन लिए संकल्प को पूरा करने की दिशा में काम करना शुरू किया। वर्ष 2012 में बिलासपुर में स्थाई लोक अदालत के चेयरमैन के पद पर उनकी नियुक्ति की गई। यहीं से उनका मन बदला और अनिवार्य सेवानिवृति के लिए विधि विधायी विभाग में अर्जी लगा दी। विभाग ने 31 जुलाई, 2013 को उनके आवेदन को स्वीकार करते हुए वीआरएस दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपने संकल्प को मिशन के रूप में तब्दील कर दिया।


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