यहां दीवारें सुनाती हैं पंचतंत्र की कहानियां, अनूठा है छठीं शताब्दी का यह बौद्ध विहार
छठी शताब्दी में निर्मित तीवरदेव बौद्ध विहार को देखने देश-विदेश से पर्यटक हर साल सिरपुर पहुंचते हैं।
रायपुर, आनंदराम साहू। दक्षिण कोशल अर्थात प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी श्रीपुर (वर्तमान में सिरपुर) शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र था। यहां टीलों की खोदाई से निकले पुरावशेष आज भी अपनी गौरवशाली इतिहास की कहानियां कह रही हैं। यहां की दीवारें सदियों बाद भी पंचतंत्र की कहानियां सैलानियों को सुना रही हैं। ऐसा कहना है कि पुरातत्ववेत्ता पद्यश्री अरूण कुमार शर्मा का।
नैतिक शिक्षा का पाठ अपनी दीवारों में उकेरी हुई यहां छठी शताब्दी में निर्मित तीवरदेव बौद्ध विहार को देखने देश-विदेश से पर्यटक हर साल सिरपुर पहुंचते हैं। सिरपुर में टीलों की खोदाई से मिले पुरावशेष इसको प्रमाणित कर रहे हैं। बीते कुछ वर्ष पहले तक स्कूल शिक्षा की किताबों में बच्चों को नैतिक शिक्षा देने पंचतंत्र की कहानियों का समावेश किया गया था। हजारों वर्ष पहले पंडित विष्णु शर्मा द्वारा राजकुमारों को सुनाई गई ये कहानियां हर युग में प्रासंगिक और सामयिक हैं।
ढाई हजार साल पहले था शिक्षा का केंद्र
बच्चे किताबों में पंचतंत्र की जिन कहानियों को पढ़कर शिक्षा ले रहे हैं, वैसी शिक्षा आज से करीब ढाई हजार साल पहले सिरपुर में बौद्ध विहारों में मुखाग्रदी जाती थी। तब पत्थरों को तराशकर उसमें चित्रांकन किया गया था। इसका वर्णन करके और इन पाषाण प्रतिमाओं को दिखाकर बौद्ध भिक्षुकों और यहां आने वाले शिक्षार्थियों को उपदेश दिया जाता था। सिरपुर में तीवरदेव विहार के प्रवेश द्वार पर चित्रित पंचतंत्र की कथाओं वाली ये मूर्तियां इसके प्रमाण हैं।
नालंदा से समृद्ध थी सिरपुर की शिक्षा व्यवस्था
पुरावेत्ता अरूण कुमार शर्मा का कहना है कि सिरपुर में टीलों की खोदाई से दो मंजिला बौद्ध विहार मिला है, जबकि नालंदा में एकमंजिला विहार मिला। इससे स्वत: स्पष्ट है कि सिरपुर शिक्षा का प्राचीन और सबसे बड़ा केंद्र रहा है। सिरपुर में लाल पत्थरों पर उकेरी गई आकृतियों को सैकड़ों साल बीतने के बावजूद अभी भी स्पष्ट देखा जा सकता है। इसे देखकर बच्चों-बड़ों को पंचतंत्र की कहानियां बरबस ही याद आती है। पुरातत्वविदों का ऐसा मानना है कि उस समय के लोग यह भलीभांति जानते थे कि हस्त लिखित पाण्डुलिपियां तो नष्ट हो सकती हैं, लेकिन पत्थरों पर कोई संदेश अथवा आकृति बनाई जाए तो वह सहस्त्राब्दी तक अमिट छाप छोड़ जाएगी। उस दौर के राजा-महाराजाओं ने इसी सोच के चलते पत्थर तराशने वाले कारीगरों से पंचतंत्र की कहानियों को पत्थरों पर अंकित करवाया होगा।
चतुराई के साथ जीवन बसर की शिक्षा
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 90 किलोमीटर दूर महासमुंद जिले के महानदी तट पर स्थित है सिरपुर। यहां पत्थरों पर उकेरी गई आकृतियों को देखकर पंचतंत्र की कहानियां वर्तमान समय में भी चतुराई के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देती है। यहां अनगिनत पुरावशेषों में से एक हैं तीवरदेव विहार। इस विहार के प्रवेश द्वार पर मगरमच्छ की पीठ पर सवार बंदर को नदी पार करते हुए दृश्यांकित किया गया है। बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती, मगरमच्छ द्वारा धोखाधड़ी करके बंदर से उसका कलेजा मांगने, बड़ी चतुराई के साथ बंदर के द्वारा अपनी जान बचा लेने संबंधी पंचतंत्र की कहानी का संदेश इस चित्रांकन को देखकर बरबस ही आंखों के सामने प्रदर्शित होने लगता है। इस दृश्य में मौत को करीब देखकर भी नहीं डरने और समझदारी के साथ अपनी जान बचाने का संदेश भी दिया गया है।
सोलह साल पहले खोदाई कर ढूंढ निकाला था यह विहार
पुरातत्ववेत्ता अरूण कुमार शर्मा बताते हैं कि उन्होंने बोधिसत्व नागार्जुन स्मारक संस्थान अनुसंधान केन्द्र के आग्रह पर उनके व्यय पर वर्ष 2003 में इस विहार को टीलों की खोदाई से ढूंढ निकाला था। खोदाई में मिले तीवरदेव विहार के मुख्य प्रवेश द्वार पर पंचतंत्र की अनेक कहानियों को पत्थरों पर तराशा और चिन्हांकन किया गया है। इसे भारत सरकार के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रायपुर मंडल द्वारा संरक्षित घोषित किया गया है। अभिलेखीय प्रमाण के अनुसार तीवरदेव विहार का निर्माण छठीं शताब्दी के मध्य में तत्कालीन सोमवंशी शासक तीवरदेव के समय में हुआ था। जो उनके भ्राता हर्षगुप्त और पौत्र महाशिवगुप्त बालार्जुन के समय में भी उपयोग में रहा। बाद महानदी तट पर आए भयंकर भूकंप में यह पुरानगरी रसातल में चला गया। जिसे खोदाई कर निकाला गया है।