2001 दंगा मामला: सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की उत्तर प्रदेश सरकार की अपील
दोषपूर्ण जांच में संदेह का लाभ अभियुक्तों को मिलना चाहिए।कानपुर की सत्र अदालत ने सुनाई थी उम्रकैद की सजा
माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कानपुर में दंगा और पुलिस बल पर हमला करने के मामले में चार अभियुक्तों वासिफ हैदर, मुमताज उर्फ मौलाना, हाजी अतीक और शफत रसूल को बरी किये जाने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने जांच में खामियों पर सवाल उठाते हुए हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दाखिल उत्तर प्रदेश सरकार की अपील सोमवार को खारिज कर दी।
चार अभियुक्तों को बरी करने के हाईकोर्ट के आदेश को सही ठहराया
न्यायमूर्ति एनवी रमना और न्यायमूर्ति एमएम शांतनगौडर की पीठ ने प्रदेश सरकार की अपील खारिज करते हुए कहा है कि उन्हें हाईकोर्ट के फैसले में कोई खामी नजर नहीं आती। कोर्ट ने यह भी कहा है कि जबतक बहुत बाध्यकारी कारण न हो सुप्रीम कोर्ट बरी करने के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील पर विचार नहीं करता।
एडीएम चंद्र प्रकाश पाठक की हत्या
धार्मिक पुस्तक जलाने की अफवाह के बाद कानपुर में 2001 में दंगा भड़का था जिसे नियंत्रित करने गई पुलिस पर नयी सड़क स्थित सुनहरी मस्जिद के पास से गोलियां चलाई गईं थीं जिसमें एडीएम चंद्र प्रकाश पाठक की गोली लगने से मौत हो गई थी जबकि उनका अर्दली राम चंद्र घायल हुआ था। इस मामले में कानपुर की सत्र अदालत ने 20 जनवरी 2004 को चारो अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सत्र अदालत के आदेश को पलटते हुए चारो अभियुक्तों को बरी कर दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी थी।
कानपुर की सत्र अदालत ने सुनाई थी उम्रकैद की सजा
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाएं खारिज करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष परिस्थितियों की कड़ी साबित करने में नाकाम रहा जो कि अभियुक्तों के दोषी होने पर संदेह पैदा करता है। यह तय सिद्धांत है कि संदेह चाहें जितना भी गहरा क्यों न हो वह साक्ष्य की जगह नहीं ले सकता। मेबी (हो सकता है) और मस्टबी (जरूर हुआ) के बीच काफी दूरी है। अभियोजन को अपना केस संदेह से परे साबित करना होता है।
दंगा नियंत्रण करने गई पुलिस पर हुए हमले में मारे गए थे एडीएम
कोर्ट ने कहा कि इस मामले में दोषपूर्ण जांच का प्रभाव है कि अभियुक्तों के निर्दोष होने के अनुमान को मजबूती मिलती है। ऐसे मामलों में दोषपूर्ण जांच में संदेह का लाभ अभियुक्तों के पक्ष में जाता है।
कोर्ट ने कहा कि वह मामले की गंभीरता को समझते हैं एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपने कर्तव्य का निर्वाहन करते हुए जान गंवाई है। कोर्ट इस तथ्य को भी नजर अंदाज नहीं कर सकता कि दोषपूर्ण जांच के चलते अभियोजन आरोपियों को दोषी साबित करने में नाकाम रहा है। ऐसी दोषपूर्ण जांच में संदेह का लाभ अभियुक्तों को मिलना चाहिए।