पाकिस्तान में मुस्लिम बुजुर्ग शासिका ने संभाला तो बच गई जिदगी
जब मारकाट हुई तो मेरी उम्र 20 साल थी आज भी वह वक्त सोच कर आंखों में आंसू निकल जाते हैं। वहां अंग्रेजों की हकुमत थी। मानसिक रूप से परेशानी झेलनी पड़ती थी। वहां मुस्लिम बुजुर्ग शासिका ने काफी सहयोग किया। जब वे तीन या चार साल के थे तो पिता अमीर चंद की मृत्यु हो गई। इसके बाद माता भगवान देवी ने परिवार को संभाला।
जब मारकाट हुई तो मेरी उम्र 20 साल थी, आज भी वह वक्त सोच कर आंखों में आंसू निकल जाते हैं। वहां अंग्रेजों की हकुमत थी। मानसिक रूप से परेशानी झेलनी पड़ती थी। वहां मुस्लिम बुजुर्ग शासिका ने काफी सहयोग किया। जब वे तीन या चार साल के थे, तो पिता अमीर चंद की मृत्यु हो गई। इसके बाद माता भगवान देवी ने परिवार को संभाला। लैलपुर जिले में करियाना की दुकान से परिवार का गुजारा चलता था। कुछ समय तक यहां रहे। इसके बाद ताऊ टिकाया राम तहसील थाने वाल के गांव मिलतानपुर ले गए। यहां गांवों की नंबरों के हिसाब से पहचान होती थी।
पुराना खानेवाला और नया खानेवाल दो जगह थी। नया खानेवाला अंग्रेजों ने बसाया। इनमें नया खानेवाला में अंग्रेजों का शासन था। तीन बहनें सहित परिवार में पांच सदस्य थे। तीन बहनों में सबसे बड़ी रामप्यारी, उससे छोटी लक्ष्मी व सबसे छोटी माया थी। यहां आने के बाद सब की शादी हुई। इसके अलावा उनके चाचा, ताऊ व मामा भी थे। दरिदों ने मामा की लड़की व लड़के को कुएं में फेंक दिया। इस घटना में मामा की लड़की की जान बच गई वहीं लड़के की मौत हो गई। मामा जिला जंग में रहते थे, वहां एक गुरुद्वारा में दरिदों ने सभी हिदुओं को रोका हुआ था और मारने की तैयारी चल रही थी, उसका मामा लदा राम सात फीट था, छोटे मामा रामजी दास व तीसरा रामजीत मल। इनमें से रामजीत मल ही हमें अमृतसर में मिला, जबकि दोनों मामा वहां गुरुद्वारा के सामने खड़े हो गए, बोले हमें दरिदों की गोली से नहीं मरना है, यह सुनते ही दरिदों ने हमला कर दिया और उसके दोनों मामाओं को मार डाला। इतनी सारी उथल-पुथल के बाद वहां की महिला शासिका ने कहां इतने लंबे समय से यहां से जा रहे हो अब बंटवारे के समय जितना सामान ले जा सकते ले जाओ। करियाना की दुकान से परिवार चलाया
पिता की मौत के बाद मां ने ही उन्हें संभाला। लैलपुर जिला में परिवार रहता था। मां ने करियाना की दुकान से परिवार का गुजारा चलाया। मारकाट के समय बहुत यातनाएं झेलनी पड़ी। यहां ज्यादातर मुस्लिम परिवार रहते थे। उनके साथ काफी प्रेम प्यार भी था। जहां वे रहते थे, वहां दंगे कम हुए, दूसरे शहरों में दंगे ज्यादा थे, इसलिए जानमाल का नुकसान उनके शहर में कम हुआ।
राबर्ट नामक अंग्रेज का चलता था कारखाना
लाहौर में राबर्ट नामक अंग्रेज का कारखाना चलता था। उन्हीं की मिल्ट्री थी। लाखों की आबामी थी। लोगों को शारीरिक रूप से कम परेशानी हुई बल्कि मानसिक रूप से ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ी। रेलों में फोर्स तैनात की गई थी। इस तरह से हुआ आगमन
वे लाहौर से पहली बार अमृतसर पहुंचे। इसके बाद जालंधर में कुछ समय व्यतीत किया। यहां थोड़ा दिल्ली से सामान लेकर आते थे। करियाना की दुकान चलाई। सरकार की ओर से जालंधर में मकान आंवटित हुआ। उसके बाद हरियाणा प्रांत के जिला कैथल के गांव बाकल में आए। यहां तीन साल रहे। कुछ दिन बाद यहां भी कपड़ा का कारोबार शुरू किया। इसके बाद राजौंद के गांव खेड़ी राव वाली में रहे। यहां भी अपना कारोबार शुरू किया। इसके बाद परिवार कैथल शहर में रहने लगा। -जैसा की 93 वर्षीय बुजुर्ग लछमन दास ने संवाददाता जोनी प्रजापति को बताया।