अंग्रेजों की प्रताड़ना में छोड़ना पड़ा था घर, स्वाधीनता के दीवाने पिता-पुत्र ने आधी रात फहरा दिया था तिरंगा
स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे क्रांतिकारियों की मदद के बाद जब पिता-पुत्र को प्रताड़ित किया गया तो उन्नाव में घर छोड़कर उन्हें कानपुर आना पड़ा। डीएवी कालेज में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान क्रांतिकारियों के संपर्क में आए थे।
कानपुर, शिवा अवस्थी। स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे क्रांतिकारियों की मदद के बाद जब पिता-पुत्र को प्रताड़ित किया गया तो उन्नाव में घर छोड़कर उन्हें कानपुर आना पड़ा। इसके बावजूद दोनों पिता-पुत्र डिगे नहीं। लगातार डटे रहे और अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आए।
इन गुमनाम आजादी के दीवानों ने कभी पेंशन लेने के लिए भी कदम नहीं बढ़ाए। जब देश को स्वतंत्र किए जाने का एलान हुआ तो 14 अगस्त की रात ही तिरंगा झंडा फहरा दिया। ये शख्स थे मूलरूप से उन्नाव के सिकंदरपुर कर्ण निवासी सूर्यदेव और उनके पुत्र भूदेव शुक्ला।
किदवईनगर साइट नंबर एक निवासी स्वदेश शुक्ला बताते हैं कि उनके बाबा सूर्यदेव शुक्ला का निधन 82 साल की उम्र में वर्ष 1966 में, जबकि पिता भूदेव शुक्ला का निधन 78 साल की उम्र में वर्ष 2002 में हुआ था। बाबा सूर्यदेव डीएवी कालेज में पढ़ाई के समय से ही क्रांतिकारियों से जुड़ गए थे।
चंद्रशेखर आजाद, विशंभर दयाल त्रिपाठी, उमाशंकर दीक्षित आदि के संपर्क में आकर उनके मददगार बने। इस पर अंग्रेजों ने कई बार पैतृक गांव सिकंदरपुर कर्ण में छापेमारी की। इस पर वह कानपुर के कछियाना मोहल्ला में आकर रहने लगे। पहचान छिपाने के लिए कुछ दिन ठेकेदारी का काम भी किया।
वर्ष 1942 में जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया तो भूदेव शुक्ला छात्र जीवन में करीब 18 साल की उम्र में ही आंदोलन में कूद पड़े। उनकी ससुराल कुरसवां में थी। वह स्वर्गीय छैलबिहारी कंटक, नारायण दत्त तिवारी व लीलाधर अस्थाना से जुड़े रहे।
इसके साथ कांग्रेस में रहकर काफी समय तक काम किया। जब आजादी मिली तो उन्हें सम्मानित किया गया। स्मृति के रूप में महात्मा गांधी का चित्र उन्हें भेंट किया गया, जिसे उर्सला अस्पताल के बाहर रखकर पूजा की व झंडा फहराया।
स्वदेश के मुताबिक, बाबा व पिता ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में पेंशन लेने के लिए कभी आवेदन नहीं किया, भले आर्थिक समस्याओं से जूझते रहे। डीएवी कालेज के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डा. समर बहादुर सिंह बताते हैं कि डीएवी कालेज व हास्टल में तमाम गुमनाम क्रांतिकारी स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान रहते रहे।
मोहल्लों में जाकर इन लोगों ने अलख जगाई। इनमें ही सूर्यदेव का नाम भी आता है। स्वाधीनता की लड़ाई में डीएवी कालेज के तत्कालीन छात्रों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।