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नजरिया हो नया: आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास से दिव्यांग लिखें अपनी नई कहानी

दिव्यांगता चाहे जिस भी वजह से हुई हो, कुरेद-कुरेद कर उसकी जड़ में जाने से किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला। उल्टे इससे पीड़ित व्यक्ति की तकलीफ फिर से हरी अलबत्ता हो जाती है।

By Arti YadavEdited By: Published: Mon, 03 Dec 2018 02:01 PM (IST)Updated: Mon, 03 Dec 2018 02:01 PM (IST)
नजरिया हो नया: आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास से दिव्यांग लिखें अपनी नई कहानी
नजरिया हो नया: आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास से दिव्यांग लिखें अपनी नई कहानी

नई दिल्ली, जेएनएन। मेरठ के डॉ. गौतम पाल पैरों से दिव्यांग हैं, पर उनके चेहरे पर हर समय आत्मविश्वास से भरी एक चमक रहती है। यह चमक उनके बुलंद हौसले की वजह से है। अपनी कमियों और लाचारी पर रोने की बजाय उन्होंने इसी को अपनी ताकत बना लिया है। वे न सिर्फ आत्मनिर्भर हैं, बल्कि देशभर में घूमकर दिव्यांगों के साथ-साथ हर किसी को खुद पर भरोसा करते हुए आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का पाठ पढ़ा रहे हैं। उनकी सक्रियता और उत्साह देख अच्छे-भले लोग दांतों तले अंगुलियां दबा लेते हैं। हालांकि अपने पैरों पर खड़ा होना उनके लिए इतना आसान नहीं रहा, पर परिजनों की प्रेरणा ने बचपन में ही उनके भीतर उत्साह का बीज बो दिया था।

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हालांकि आज भी उनकी गतिविधियों, उनकी सक्रियता और सामाजिक सरोकारों से जुड़े उनके कार्यों को कतिपय लोग संदेह की नजर से देखते हैं, उन्हें इसका दुख तो होता है, पर वे इसकी परवाह किए बिना अपने काम में अनवरत जुटे रहते हैं। इसमें उनका ताजा अभियान दिव्यांग-जनों को सरकार की तरफ से मिलने वाले लाभों और अधिकारों के बारे में बताना और जागरूक करना है, ताकि वे उसका फायदा उठा सकें। इसका कारण यह है कि देश के ज्यादातर दिव्यांगों को इनके बारे में पता ही नहीं है। उल्लेखनीय यह भी है कि उनके जज्बे और सक्रियता को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शुरुआती ‘मन की बात’ में ही उनकी चर्चा करते हुए उन्हें एक उदाहरण बताया था।

जहां मिलती हैं अपार खुशियां
देश की राजधानी दिल्ली में वैसे तो कई अस्पताल हैं। इनमें कई अद्वितीय भी हैं। पर दिव्यांग-जनों के जीवन को खुशियों से भर देने में एक अस्पताल अव्वल कहा जा सकता है। इस अस्पताल का नाम है ‘इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर’, जो दिल्ली के वसंत कुंज में स्थित है। स्पाइनल इंजरी की विशेषज्ञता वाले इस अस्पताल में देश-विदेश से मरीज आते हैं। इनमें पैराप्लेग्यिा (जो कमर से नीचे संज्ञाशून्य होते हैं) के मरीज भी होते हैं और क्वाड्राप्लेग्यिा (गर्दन से नीचे संज्ञाशून्य) के भी। यहां के उपचार से कुछ मरीज ठीक होकर अपने पैरों पर चलकर यहां से हंसते हुए जाते हैं, पर यहां के सर्जरी-उपचार से भी बड़ी बात यहां रिहैबिलेशन यानी पुनर्वास के दौरान मिलने वाला खुशनुमा माहौल है। यहां फिजियोथेरेपिस्ट और ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट के साथ योगा, अरोमा, मनोरंजन, खेलकूद जैसी गतिविधियों के अलावा हास-परिहास का भी जबर्दस्त माहौल मिलता है।

यहां आने वाले मरीजों में खुद इस अस्पताल के जिंदादिल डायरेक्टर डॉ. एच.एस. छाबड़ा कुछ ही दिनों में जीने और जिंदगी में कुछ अलग करने की आस जगा देते हैं और हर दिन के साथ यह आस बढ़ती जाती है। कोई मरीज भले ही पूरी तरह न ठीक हो पाये, लेकिन जब वह यहां से विदा लेता है, तो उसे ऐसा लगता है जैसे किसी दुल्हन का मायका छूट रहा हो। वह यहां से बेशक हंसता हुआ जाता है, पर यहां बार-बार आना भी चाहता है, यहां के लोगों से लगाव के चलते।

प्रतिकूलताओं की दुनिया
अब जरा कुछ दूसरी बात, जो हमारे समाज की कथित नकारात्मक सोच से जुड़ी है। दिव्यांगता चाहे जन्मजात हो या फिर किसी दुर्घटना की वजह से, इससे कुछ समय के लिए तो संबंधित व्यक्ति का हौसला टूट जाता है। बाद में परिजनों, चिकित्सकों या फिर इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर जैसे अस्पतालों की वजह से उसका हौसला जागता भी है, तो हमारे आसपास रहने वाले लोग अजीब नजरों से घूरते हुए अक्सर उससे इतने सवाल करते हैं कि ज्यादातर का हौसला जवाब देने लगता है। दरअसल, ऐसा करने वाले लोग अपने बंद दिमाग, पारंपरिक सोच और असहयोगी रवैये की वजह से अपने साथ-साथ दूसरों का जीना भी हराम किए रहते हैं। ऐसे लोग हाथ-पैर होते हुए भी खुद तो दुखी रहते ही हैं, जो उत्साह के साथ जीना और आगे बढ़ना चाहता है, उसकी राह में भी जब-तब रोड़े अटकाते रहते हैं। यह हमारे समाज की विडंबना नहीं तो और क्या है।

सोच बदलने की जरूरत
दिव्यांगता चाहे जिस भी वजह से हुई हो, कुरेद-कुरेद कर उसकी जड़ में जाने से किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला। उल्टे इससे पीड़ित व्यक्ति की तकलीफ फिर से हरी अलबत्ता हो जाती है। बजाय इसके होना तो यह चाहिए कि हम अपनी बातों, व्यवहार और सहयोग से उस दिव्यांग व्यक्ति के हौसले को और बढ़ाने का लगातार प्रयास करें, ताकि वह खुशी के साथ न केवल जीवन व्यतीत कर सके, बल्कि अपने भीतर के हुनर को जगाकर-तराशकर अपनी अलग पहचान बनाने की राह पर तेजी से आगे बढ़ सके। यूरोप-अमेरिका सहित दुनिया के तमाम देशों के लोगों में यही सहयोगी रवैया दिखता है। वे किसी दिव्यांग पर हंसने, टिप्पणी करने या उसकी खिल्ली उड़ाने की बजाय प्राथमिकता के आधार पर उसका हर संभव सहयोग करने के लिए हर समय तत्पर रहते हैं।

सरकार-संस्थान भी आएं आगे
संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में दुनियाभर में आज के दिन को हर साल दिव्यांग दिवस के तौर पर मनाया जाता है। पर यह सिर्फ एक दिवस को मना लेना भर नहीं है। हमें आज के दिन यह संकल्प लेना चाहिए कि हम दिव्यांगों को हर तरह से न सिर्फ खुद आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे, बल्कि इसके लिए सरकारों-संस्थानों पर भी दबाव डालेंगे कि वे दिव्यांग-जनों की सुविधा को देखते हुए अपने परिसरों का विकास करें। उनके लिए आवागमन के साधनों को सुगम बनाएं, ताकि वे बिना किसी का सहारा लिए खुद से अपनी मंजिलें तय कर सकें। उनके हुनर को पहचान कर उन्हें निखारने के लिए देशभर में केंद्र खोले जाएं, जहां पूरी ईमानदारी, प्रतिबद्धता और आदर के साथ दिव्यांगों को प्रशिक्षित करने पर जोर दिया जाए।

काउंसिलिंग भी है जरूरी
दिव्यांग-जनों का उत्साह और आत्मबल बढ़ाने के लिए उनकी निरंतर काउंसिलिंग भी की जानी चाहिए। इसके तहत उनके साथ प्रेमपूर्वक बातें करना, उनकी समस्याएं सुनना, उन पर विचार करना, उनके हल के लिए प्रयास करना, उन्हें समुचित रोजगार के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित करने जैसे कदम हो सकते हैं। इसके अलावा, पारंपरिक और दकियानूसी सोच रखने वाले लोगों की भी काउंसिलिंग की जानी चाहिए।


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