विफलता को बना लें सफलता की सीढ़ी, मिलेगी मनचाही मंजिल
क्या आप ऐसे मनुष्य को विफल मानेंगे जिसने बहुत कठिनाइयों के बाद भी सफलता पायी हो? इसमें कोई संदेह नहीं कि सफलता और विफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
नई दिल्ली [डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय]। अभ्यास में इतनी शक्ति होती है कि वह जड़बुद्धि को भी चेतना के धरातल पर लाकर जीवन्त कर देता है। मान्यता है कि ‘मरा-मरा’ का उच्चारण करने वाला व्यक्ति ‘राम-राम’ बोल पड़ा था और उस क्रिया की प्रतिक्रिया ऐसी हुई कि वह ‘महर्षि’ बन गया और जगत-उद्धार के कर्म में तत्पर हो गया था। इस बात का उदाहरण है कि किसी कार्य की सफलता अथवा विफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसमें अंतर इतना ही है कि सफल विद्यार्थी हर बार गिरकर उठते और बढ़ते रहते हैं।
क्या आप ऐसे मनुष्य को विफल मानेंगे, जिसने बहुत कठिनाइयों के बाद भी सफलता पायी हो? इसमें कोई संदेह नहीं कि सफलता और विफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यही कारण है कि प्राय: प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सफलता प्राप्त होने और न होने के क्षण अवश्य आते हैं।
जहां सफलता हर किसी को प्रसन्नता प्रदान करती है, वहीं विफलता दु:ख देती है। रही बात आगे की तो कुछ मनुष्य अपने-आपको संसार का सबसे अभागा और दु:खी व्यक्ति मानकर चिंताग्रस्त हो जाते हैं। धीरे-धीरे चिंता की यह प्रवृत्ति उनके व्यक्तित्व पर इस तरह से प्रभावी हो जाती है कि उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में विफलता ही प्राप्त होती है। ऐसी प्रवृत्ति हमारे विद्यार्थियों के कदम को अप्रिय दिशा में ले जाती है। यह प्रवृत्ति यदि आपके अंदर आ गयी और समय पर आप नहीं संभले तो यह समझिए कि सफलता आपसे कोसों दूर रहेगी।
इसे ऐसे समझिए-आपको यदि किसी कारण से आइएएस की परीक्षा में विफलता का सामना करना पड़ा है और आप उसे लेकर बहुत अधिक चिंतित हैं। इसकी वजह से आप अपने अध्ययन के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो विचार कीजिए, कठिन प्रतियोगिता के इस दौर में क्या आप बिना विधिवत तैयारी के उसी अथवा अन्य परीक्षाओं में सफल हो सकेंगे? निश्चित रूप से नहीं। ऐसे में, आपके भीतर चिंता करने के कई कारण स्वत: उत्पन्न हो जायेंगे। यही चिंताएं आपके प्रयत्नों को पंगु बना देती हैं और गंतव्य मार्ग को अवरुद्ध कर देती हैं।
आशानुरूप परिणाम न आने पर हर कोई चिंताग्रस्त हो जाता है, परंतु चिंता की अति होना, भविष्य और जीवन के लिए भयावह होता है। चिंता करते रहने से समस्या का निराकरण नहीं होता। इसके लिए ‘चिंतन’ करने की आवश्यकता है। भाग्य को दोषी ठहराने से आप हलके सिद्ध होंगे, क्योंकि भाग्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। आपकी आस्था मात्र अपने कर्म के प्रति रहनी चाहिए। यदि विफलताएं हमारे जीवन में न आयें तो हम अपने दुर्गुणों, अपनी कमजोरियों को कैसे पहचानेंगे? इसलिए आप अपने अवगुणों और अभावों को पहचानने और उन्हें दूर करने पर ध्यान दें।
कोई भी वांछित लक्ष्य तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब आप अपनी वास्तविक क्षमताओं से परिचित हों। अपनी क्षमताओं का आकलन करके ही आप विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि हां, मैं अपना लक्ष्य प्राप्त करूंगा, जो कि मेरी सामथ्र्य में है। हर विफलता के बाद विद्यार्थियों को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए- इस घटना में हमने क्या खोया और क्या पाया है? हमसे कहां भूल हुई थी, जिसके कारण हम सफल न हो सके।