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आज के एकलव्य: बिना अध्यापकों वाला स्कूल, जहां एक-दूसरे से सीखते हैं बच्चे

Design Education for Yourself, डीईएफवाई बिना अध्यापकों वाला स्कूल है, जहां बच्चे एकदूसरे से सीखते हैं। यहां तक कि इसमें पहली बार आने वाले को भी बिना किसी शिक्षक की मदद के सीखना होता है।

By Arti YadavEdited By: Published: Mon, 19 Nov 2018 11:33 AM (IST)Updated: Mon, 19 Nov 2018 11:33 AM (IST)
आज के एकलव्य: बिना अध्यापकों वाला स्कूल, जहां एक-दूसरे से सीखते हैं बच्चे
आज के एकलव्य: बिना अध्यापकों वाला स्कूल, जहां एक-दूसरे से सीखते हैं बच्चे

नई दिल्ली, जेएनएन। एकलव्य की कहानी तो आप सबने सुनी होगी। कैसे जब पांडवों-कौरवों के गुरु मशहूर धनुर्धर द्रोणाचार्य ने वनवासी एकलव्य के धनुर्विद्या सिखाने के अनुरोध को निष्ठुरता से ठुकरा दिया था, तो उसने जंगल में उनकी मूर्ति स्थापित करके उसके समक्ष खुद से इतना जबर्दस्त अभ्यास किया कि अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर बन गया। हालांकि यह कम विडंबना नहीं कि राजकुल और उच्च वंश का न होने के कारण द्रोणाचार्य ने उकसाने पर गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा ही मांग लिया था, ताकि वह धनुष पर बाण का संधान ही न कर सके। पर उन्हें गुरु मान चुके एकलव्य ने भी अपना शिष्य धर्म निभाने में जरा भी देर नहीं की। यहां इस संदर्भ का उल्लेख करने का उद्देश्य सिर्फ इतना बताना है कि अपनी पसंद के क्षेत्र में समुचित शिक्षा न मिल पाने पर जिस तरह एकलव्य ने सिर्फ अपने मनोबल और दृढ़ संकल्प से इसे अभ्यास के जरिए हासिल कर लिया था, आज तमाम किशोर और युवा भी पारंपरिक शिक्षा प्रणाली के इतर अपनी राह और पहचान बना रहे हैं।

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डिजाइन एजुकेशन फॉर योरसेल्फ (डीईएफवाई)

अब से करीब चार साल पहले बाइस साल के अभिजीत सिन्हा जब एक मशहूर कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, तो शिक्षकों की अक्षमता देख उन्हें बहुत कोफ्त होती थी। उन्हें उस समय बड़ा क्षोभ होता था, जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की कक्षा में किसी अध्यापक को पता ही नहीं होता था कि इसके लिए कोडिंग कैसे लिखी जाती है। इसके बाद उन्होंने तय कर लिया कि वह मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्स के जरिए खुद से सीखेंगे। आपको इसमें कतई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इस तरह उन्होंने जल्द ही एआइ, मशीन लर्निंग,

मैकेनिकल डिजाइन आदि सीख लिया। उन्होंने यह सब खुद से ऑनलाइन सीखा। इसके बाद उन्होंने कुछ समय युगांडा में काम किया। उसी दौरान उन्हें वैकल्पिक शिक्षा के मॉडल का आइडिया आया। भारत में मौजूदा शिक्षा पद्धति को चुनौती देने और उसमें बदलाव लाने के उद्देश्य से उन्होंने वापस लौटकर बेंगलुरु के निकट बंजारापाल्या गांव में डीईएफवाई प्रोजेक्ट की शुरुआत कर दी।

बिना शिक्षकों वाला स्कूल

डीईएफवाई बिना अध्यापकों वाला स्कूल है, जहां बच्चे एकदूसरे से सीखते हैं। यहां तक कि इसमें पहली बार आने वाले को भी बिना किसी शिक्षक की मदद के सीखना होता है। इसमें अपने साथी से पूछने या गूगल की मदद लेने का विकल्प होता है। हां, जब इतने से भी बात न बने, तब सीधे अभिजीत से पूछा जा सकता है। यह स्कूल एक छोटे कमरे में लैपटॉप और इंटरनेट कनेक्शन से शुरू हुआ था। यहां आने वालों को यू-ट्यूब की मदद से आसपास पड़े कबाड़ से कोई प्रोजेक्ट बनाना होता है। कुछ ही दिनों में यहां बड़ी संख्या में बच्चे आने लगे। ग्रामीणों ने भी इसमें रुचि ली। फिर तो इसे उन्हीं के हवाले कर दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि खिलौने जैसे प्रोजेक्ट पर काम शुरू करने के बाद अब यहां बच्चे और बड़े मिलकर एग्रीकल्चर, मैकेनिक्स और टेक्सटाइल पर आधारित प्रोजेक्ट भी करने लगे हैं। महज चार साल की अवधि में अब यहां का हर ग्रामीण खुद से सीखा हुआ रिसर्चर है, जो टेक्नोलॉजी में पर्याप्त सक्षम है। वह इंटरनेट के जरिए अपना समाधान खुद हासिल कर लेता है। सकारात्मक सोच और खुद से सीखने, पढ़ने की यह प्रवृत्ति अब तेजी से अन्य इलाकों में भी फैल रही है और पारंपरिक शिक्षा प्रणाली से उकता चुके लोगों द्वारा खूब पसंद की जा रही है।

बढ़ रही है दिलचस्पी

जो माता-पिता जानते हैं कि उनके बच्चे में जो प्रतिभा है, उसे निखरने खिलने का मौका पारंपरिक स्कूलों में शायद नहीं मिल सकता, वे अपने बच्चों को या तो घर पर ही पढ़ने और आगे बढ़ने की सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं या फिर उनके लिए ऐसे स्कूल तलाश रहे हैं, जहां सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए पढ़ने की कवायद न कराई जाती हो। अच्छी बात यह है कि टेक्नोलॉजी के इस दौर में अब यह काम मुश्किल नहीं रह गया है, क्योंकि इंटरनेट की मदद से घर बैठे ही तमाम तरह के कबाड़ या बेकार की वस्तुओं से उपयोग में आने वाली सस्ती चीजें बनाई जा सकती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सीखने और मौलिक सोचने के लिए प्रोत्साहित करने में मदद मिल रही है।

खोजें नई राहें: खुद से सीखने की प्रवृत्ति की चर्चा करने का यह मतलब नहीं कि जो पारंपरिक स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं, वे उसे छोड़कर इस राह को अपना लें। उनके लिए महज यही संदेश है कि सिर्फ कोर्स की किताबों से चिपके रहने या परीक्षा में अधिक से अधिक नंबर लाने के लिए पढ़ने की बजाय अपने सोचने का तरीका बदलने पर ध्यान दें, ताकि आप जीवनोपयोगी ऐसी नॉलेज हासिल कर सकें जो लोगों के जीवन से मुश्किलें कम करने की दिशा में काम आ सके।

उत्सुक बनें: इस राह पर चलने के लिए सबसे जरूरी है कि खुद को किसी दायरे में न बांधें। माता-पिता भी इस बात को समझें। बच्चे पर अपनी इच्छा थोपने की बजाय उसके भीतर की प्रतिभा को पहचानें और उसे उसी दिशा में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। शुरुआती सहयोग के कुछ समय बाद ही आपको इसके आशाजनक नतीजे आते दिखने लगेंगे। चाहे पढ़ाई का क्षेत्र हो या फिर खेल या किसी परफॉर्मिंग आर्ट का, बच्चे का रुझान जिधर हो, उसी तरफ उसे प्रेरित करें। जो स्टूडेंट हैं, उन्हें अपनी रुचि के क्षेत्र में हमेशा नई चीजें सीखने-जानने के लिए उत्सुक रहना चाहिए। इसके लिए अपने को सिर्फ किताबों तक सीमित न रखें। अपने आंखकान-दिमाग को खुला रखें। देश-दुनिया और समाज की व्यावहारिकता पर भी नजर रखें। बड़े-बड़े सपने देखने की बजाय छोटी-छोटी बातों से भी लगातार सीखने का प्रयास करते रहें। दिमाग को खुला रखेंगे, तभी वह खुलेगा, खिलेगा और आपके साथ-साथ आपके परिजनों को अलग भी पहचान दिलाएगा।


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