सामाजिक समीकरण का फलक और बड़ा करेगी भाजपा, एक ब्राह्मण मंत्री बनने से बीजेपी में समाज देख रहा अवसर
बिहार में बदली हुई परिस्थिति में बीजेपी का आकलन है कि बिहार की सत्ता के लिए अब उसे अनुसूचित जाति व अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का समीकरण साधना होगा। भाजपा पहले से मानती रही है कि संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं अलबत्ता उसके लिए समीकरण बनाना होता है।
रमण शुक्ला, पटना : बिहार की सत्ता से भाजपा अचानक बाहर हो चुकी है। हालांकि, नीतीश कुमार ने जदयू को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अगल करने का निर्णय एकबारगी लिया हो, ऐसा नहीं लगता। कारण यह कि राजनीति में हर निर्णय संभावनाओं पर आधारित गुणा-गणित से होता है। भाजपा पहले से मानती रही है कि संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं, अलबत्ता उसके लिए समीकरण बनाना होता है। बदली हुई परिस्थिति में पार्टी का आकलन है कि बिहार की सत्ता के लिए अब उसे अनुसूचित जाति व अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का समीकरण साधना होगा, यह ध्यान रखते हुए कि उसका आधार मतदाता (सर्वण व वैश्य ) बिदके-छिटके नहीं।
पिछले चुनाव में भाजपा को अत्यंत पिछडा वर्ग का अच्छा-खासा वोट मिला था। आरक्षित सीटें भी सर्वाधिक भाजपा की झोली में गई थीं। ऐसा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के करिश्माई नेतृत्व के कारण हुआ। हालांकि, बोचहां विधानसभा के उप चुनाव में सवर्णों में भूमिहार समाज बिदक गया। अनुसूचित जाति के परंपरागत मतदाताओं का समर्थन भी उसे नहीं मिला, जिस कारण भाजपा की करारी हार हुई। भविष्य में ऐसी हार को टालने के लिए भाजपा अपने जातिगत समीकरण को दुरुस्त करेगी। इसकी शुरुआत विधानमंडल दल में नए नेता, विधानसभा और विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति के साथ ही प्रदेश संगठन में परिवर्तन से होगा।
लोकसभा में 35 सीटें जीतने का लक्ष्य
अभी महागठबंधन के वोट बैंक की तुलना में भाजपा दो तिहाई के करीब आकर सिमट जा रही है। दूसरी तरफ कोर कमेटी को लोकसभा चुनाव में राज्य की 35 सीटें जीतने का लक्ष्य मिला है। राज्य में अपने बूते सरकार बनाने के लिए 122 विधायक चाहिए। इसके लिए 50 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं को अपने पाले में करना होगा। कुछ चुनिंदा सीटों को छोड़ दें तो पूरे बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति सहज नहीं है। जातीय खांचों में बंटे प्रदेश में एक बिरादरी को साथ जोड़ने पर दूसरी बिदक जाती है। ऐसे में भाजपा का प्रयास जातियों का वह समीकरण बनाने का है, जिसे एक-दूसरे से परहेज नहीं हो।
अति पिछड़ा से किसी को मिल सकती है बड़ी जिम्मेदारी
वर्तमान में सत्ता से लेकर संगठन तक सभी पदों पर वैश्य समुदाय का ही प्रतिनिधित्व है। अहम यह है कि वैश्य में भी एक ही कलवाड़ बिरादरी का दबदबा है। प्रदेश अध्यक्ष डा. संजय जायसवाल, भाजपा विधान मंडल दल के नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री तार किशोर प्रसाद के अलावा विधान परिषद के उप मुख्य सचेतक डा. दिलीप जायसवाल भी कलवाड़ हैं। ऐसे में अब संगठन को लेकर चर्चा है कि पार्टी बदली हुई परिस्थिति और अति पिछड़ा समाज से ही किसी अन्य विधायक को भाजपा आगे अहम जिम्मेदारी सौंप सकती है।
संजय झा के उभार से जगी उम्मीद
संगठन से सत्ता तक भाजपा के उत्थान में सवर्णों की महती भूमिका रही है। सवर्णों के समरस स्वभाव के कारण बाद में कई दूसरी जातियां उससे जुड़ीं। दूसरे राजनीतिक संगठनों के साथ प्रायः ऐसा नहीं होता। सत्ता के संदर्भ में जदयू को भी भाजपा के इस जनाधार का पर्याप्त लाभ मिला है। यही कारण था कि अभी पिछली सरकार तक मंत्रिमंडल में 11 सवर्ण हुआ करते थे। महागठबंधन की सरकार में उनकी संख्या छह पर सिमट गई है। उनमें भी ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व के रूप में एकमात्र संजय झा हैं, जबकि सवर्णों में सर्वाधिक संख्या ब्राह्मणों की है। जनता के बीच मुखर रहने वाली भाजपा ब्राह्मणों के बीच इसे प्रसारित करने का पूरा प्रयास करेगी। हालांकि, संजय झा के प्रतिनिधित्व को ब्राह्मण समाज तक समेट देना उचित नहीं होगा। उनका लंबा राजनीतिक अनुभव है और मिथिला में अपना जनाधार। उनके अब तक के कार्य निर्विवाद रहे हैं और उनकी सर्व-स्वीकार्यता है। अपने राजनीतिक कद के आधार पर वे सरकार में मंत्री के पद पर है।