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पुणे जातीय हिंसा: इतिहास के पन्नों पर गर्मायी सियासत

गोविंद गायकवाड़ को सम्मान देने के लिए वढू बुदरक गांव में छत्रपति संभाजी राजे की समाधि के बगल में ही गोविंद की समाधि भी बनाई गई है।

By BabitaEdited By: Published: Wed, 03 Jan 2018 03:57 PM (IST)Updated: Thu, 04 Jan 2018 09:01 AM (IST)
पुणे जातीय हिंसा: इतिहास के पन्नों पर गर्मायी सियासत
पुणे जातीय हिंसा: इतिहास के पन्नों पर गर्मायी सियासत

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। सोमवार को पुणे से शुरू होकर पूरे महाराष्ट्र में फैलने वाला दलित आंदोलन सिर्फ 200 साल पुराने ब्रिटिश-पेशवा युद्ध से ही संबंध नहीं रखता। यह सियासत गर्माने के पीछे इतिहास के और भी कई पन्नों को उधेड़ा जा रहा है।

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भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक पर सोमवार को उमड़े लाखों दलितों के साथ शुरू हुए मराठा समुदाय के संघर्ष की पृष्ठभूमि दो दिन पहले ही तैयार हो गई थी। पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर अहमदनगर रोड पर स्थित भीमा कोरेगांव के निकट ही वढू बुदरक गांव है। भीमा नदी के किनारे स्थित इसी गांव में औरंगजेब ने 11 मार्च, 1689 को छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र एवं तत्कालीन मराठा शासक संभाजी राजे भोसले एवं उनके साथी कवि कलश को निर्दयतापूर्वक मार दिया था।

कहा जाता है कि औरंगजेब ने संभाजी राजे के शरीर के चार टुकड़े करके फेंक दिए थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसी गांव में रहने वाले महार जाति के गोविंद गणपत गायकवाड़ ने मुगल बादशाह की चेतावनी को नजरंदाज करते हुए संभाजी के क्षत-विक्षत शरीर को उठाकर जोड़ा और उनका अंतिम संस्कार किया। जिसके फलस्वरूप मुगलों ने गोविंद गायकवाड़ की भी हत्या कर दी थी। गोविंद गायकवाड़ को सम्मान देने के लिए वढू बुदरक गांव में छत्रपति संभाजी राजे की समाधि के बगल में ही गोविंद की समाधि भी बनाई गई है। 

बताया जाता है कि भीमा कोरेगांव में पेशवा- ब्रिटिश युद्ध की 200वीं बरसी धूमधाम से मनाए जाने के अवसर पर वढ़ू बुदरक गांव में गोविंद गायकवाड़ की समाधि को भी सजाया गया था। लेकिन 30 दिसंबर, 2017 की रात कुछ अज्ञात लोगों ने इस सजावट को नुकसान पहुंचाया और समाधि पर लगा नामपट क्षतिग्रस्त कर दिया। स्थानीय दलितों का कहना है कि यह काम मराठा समाज के कुछ उच्च वर्ग के लोगों ने श्री शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजी भिड़े गुरु जी एवं समस्त हिंदू आघाड़ी के अध्यक्ष मिलिंद एकबोटे के भड़काने पर किया।

सोमवार को शुरू हुए दलित-मराठा संघर्ष की पृष्ठभूमि में इस घटना का भी बड़ा योगदान माना जा रहा है। दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने भी माहौल बिगाडऩे के लिए इन दोनों नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है। वह इन दोनों कट्टर हिंदुत्ववादी नेताओं के लिए वही सजा चाहते हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय ने याकूब मेमन को दी थी। आंबेडकर का कहना है कि पहली जनवरी को भीमा कोरेगांव में हो रहे दलित जमाव को मराठों के संगठन संभाजी ब्रिगेड का समर्थन प्राप्त था। इसके बावजूद कुछ लोगों ने भड़काकर दो समुदायों को आपस में भिड़ा दिया। 

इतिहास के पन्ने पलटें तो सन् 1689 में संभाजी राजे का अंतिम संस्कार करने वाले गोविंद गणपत गायकवाड़ महार थे। फिर एक जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की सेना में रहकर पेशवाओं से युद्ध करने वाले 600 सैनिक भी महार थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी महार समुदाय से थे। आजादी के बाद उनके साथ नवबौद्ध बननेवाले करीब पांच लाख लोगों में से अधिसंख्य महार ही थे। आंबेडकर पहली बार 1927 में भीमा कोरेगांव स्थित युद्ध स्मारक पर गए थे। 18 जून, 1941 का लिखा डॉ. आंबेडकर का एक पत्र मिलता है, जिसमें उन्होंने महारों को लड़ाकू कौम बताते हुए 1892 में भंग कर दी गई ब्रिटिश सेना की महार रेजीमेंट को फिर से शुरू करने की सिफारिश की थी। 

लेकिन अब वर्षों बाद इस इतिहास की बुनियाद पर सियासत की कोशिश की जा रही है। भीमा कोरेगांव में सोमवार को लाखों दलितों के जमाव से ठीक पहले की शाम पेशवाओं का निवास रहे शनिवारवाड़ा के बाहर यलगार परिषद का आयोजन किया जाता है। जिसमें प्रकाश आंबेडकर के साथ गुजरात के नए उभरे दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला एवं जेएनयू के वामपंथी छात्रनेता उमर खालिद शामिल होते हैं। मेवाणी इसी परिषद में भड़काऊ भाषण देते हैं।

भाजपा और संघ को नया पेशवा बताते हुए सभी दलों को इनके विरुद्ध एकजुट होने का आह्वान करते हैं। अगले दिन से ही भीमा कोरेगांव में लाखों दलितों के जमावड़े के बीच मराठा समुदाय के एक युवक की हत्या हो जाती है। इस घटनाक्रम की जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा घोषित न्यायिक आयोग अपनी रिपोर्ट में भले कुछ भी कहे। लेकिन इन घटनाओं के राजनीतिक निहितार्थ से तो इंकार नहीं किया जा सकता।   

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