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Uddhav Thackeray Anyalsis: जानें उद्धव ठाकरे की वो कमियां, पहले टूटे थे भाजपा के साथ 30 साल पुराने संबंध, अब हाथ से गई सत्ता

Uddhav Thackeray Inside Story महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एवं शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे अपने पिता बालासाहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को संभाल नहीं पाए। जिसके कारण उन्हें भाजपा के साथ 30 साल पुराने संबंध भी गंवाने पड़े और ढाई साल पुरानी सत्ता भी।

By Vijay KumarEdited By: Published: Thu, 30 Jun 2022 11:14 PM (IST)Updated: Thu, 30 Jun 2022 11:21 PM (IST)
Uddhav Thackeray Anyalsis: जानें उद्धव ठाकरे की वो कमियां, पहले टूटे थे भाजपा के साथ 30 साल पुराने संबंध, अब हाथ से गई सत्ता
पिता की विरासत को संभाल नहीं पाए उद्धव ठाकरे

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे को न सिर्फ महाराष्ट्र में, बल्कि पूरे देश में हिंदू हृदय सम्राट कहकर सम्मान दिया जाता था। उनकी यह छवि श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान और निखरकर सामने आई, जिसके फलस्वरूप शिवसेना-भाजपा गठबंधन को 1995 में पहली बार सत्ता में भी आने का अवसर मिला। उस दौरान उद्धव के चचेरे छोटे भाई राज ठाकरे को बालासाहब का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था। उन दिनों राज ठाकरे अपने ताऊ बालासाहब के साथ लगभग सभी राजनीतिक सभाओं में उपस्थित रहते थे, जबकि उद्धव ठाकरे अपनी वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी का शौक पूरा करने में लगे थे।

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उद्धव ने 2002 में हुए मुंबई महानगरपालिका चुनाव से राजनीति में रुचि लेनी शुरू की, और धीरे-धीरे पार्टी में सक्रिय होते गए। राजनीति में उनकी सक्रियता बढ़ती देख पार्टी से नारायण राणे और राज ठाकरे जैसे कद्दावर नेताओं ने किनारा कर लिया। राणे कांग्रेस में शामिल हो गए, तो राज ने अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। इस पार्टी को 2009 के विधानसभा चुनाव में 12 सीटें हासिल हुईं, और लोकसभा में करीब 10 सीटों पर इसके कारण शिवसेना को हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन राज ठाकरे अपनी इस सफलता को संभाल नहीं पाए। आज उनकी पार्टी का सिर्फ एक विधायक है।

2014 का लोकसभा चुनाव शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा। लेकिन उस समय की प्रबल मोदी लहर में मिली अपनी रिकार्ड सफलता को वह उद्धव ठाकरे का करिश्मा समझ बैठी। तब शिवसेना लोकसभा की 18 सीटें जीती थी। इसी गलतफहमी के कारण उद्धव के पुत्र आदित्य ठाकरे ने छह माह बाद ही होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिए 151 प्लस का लक्ष्य तय कर लिया। यानी अकेले सत्ता में आने का। जबकि भाजपा भी मोदी लहर के प्रभाव में वह चुनाव बराबरी की सीटों पर लड़ने पर अड़ गई।

आखिरकार सीटों का समझौता न हो पाने के कारण दोनों पार्टियों का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। पहली बार अकेले विधानसभा चुनाव लड़ी शिवसेना को उस चुनाव में सिर्फ 63 सीटें हासिल हुईं। जबकि भाजपा उससे दोगुनी सीटें पाने में सफल रही। चुनाव बाद कुछ दिन विपक्ष में बैठने के बाद उद्धव ने भाजपा से हाथ मिलाने में ही भलाई समझी। लेकिन तब तक उद्धव ठाकरे के संजय राउत जैसे सिपहसालारों की भूमिका पार्टी में बढ़ चुकी थी। 2019 का चुनाव शिवसेना ने भाजपा के साथ लड़ा जरूर। लेकिन चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद उसने भाजपा से नाता तोड़ कांग्रेस-राकांपा के साथ महाविकास आघाड़ी नामक नए गठबंधन में शामिल हो गई। यानी उनके पिता बालासाहब ठाकरे आजीवन जिन दलों की खिलाफत करते रहे, उन्हीं से उद्धव ने हाथ मिला लिया।

राउत उनके मुख्य सलाहकार बन गए, तो शरद पवार राजनीतिक गुरु। और भाजपा के साथ अपना 30 साल पुराना गठबंधन उन्होंने तोड़ लिया। पवार ने उद्धव को पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बनाकर सभी महत्त्वपूर्ण मंत्रालय अपने और कांग्रेस के बीच बांट लिए। हिंदुत्व के उस एजेंडे को भी तिलांजलि दे दी गई, जिसके भरोसे उनके 56 विधायक चुनकर आए थे। उनकी सरकार के दो साल तो कोविड में गए, तो दूसरी ओर सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरते रहे। दो को तो जेल भी जाना पड़ा।

सरकार की छवि ऐसी खराब होने लगी कि उनके विधायकों को दुबारा चुनकर आने में भी दिक्कत महसूस होने लगी। तब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के 39 विधायकों ने बगावत का झंडा उठा लिया। जिसके फलस्वरूप उद्धव को अपने आधे कार्यकाल में ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। अब वह सरकार से भी जा चुके हैं, और भाजपा के साथ 30 साल से चले आ रहे संबंधों से भी।


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