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Shramik Special Trains: अब यूपी-बिहार से कोंकण के लिए ‘श्रमिक विशेष’ ट्रेनों की जरूरत

Shramik Special Trains वेंगुर्ला के रहने वाले सुरेंद्र ठाकुर बताते हैं कि सिर्फ उनके जिले में करीब 2000 नौकाओं से रेत निकालने का काम होता है। खुद उनकी एक नाव पर 13 श्रमिकों का समूह काम करता है। मई-जून में गांव गए ये सभी श्रमिक वापस आने को तैयार हैं।

By Sachin Kumar MishraEdited By: Published: Sun, 22 Nov 2020 05:56 PM (IST)Updated: Sun, 22 Nov 2020 05:56 PM (IST)
Shramik Special Trains: अब यूपी-बिहार से कोंकण के लिए ‘श्रमिक विशेष’ ट्रेनों की जरूरत
यूपी और बिहार से कोंकण के लिए ‘श्रमिक विशेष’ ट्रेनों की जरूरत। फाइल फोटो

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। Shramik Special Trains: महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड व नेपाल के श्रमिक आम के बागानों, मछली पकड़ने व रेत खनन के कामों में सहायक की भूमिका निभाते हैं। इस वर्ष मई- जून में अपने गांव चले गए इन श्रमिकों की अब यहां जरूरत महसूस की जा रही है। उधर, अपने गांवों में ये श्रमिक भी लगभग खाली बैठे हैं। लेकिन वापसी के लिए ट्रेनें बंद होने से इन श्रमिकों न इन श्रमिकों को रोजगार मिल पा रहा है, न कोंकण के उनके कार्यक्षेत्र में काम शुरू हो पा रहा है। गोवा से सटा सिंधुदुर्ग जिला वैसे तो पर्यटन जनपद के रूप में मशहूर है। लेकिन यहां की पहाड़ी नदियों से रेत खनन का काम भी बड़े पैमाने पर होता है। इसमें बड़े पैमाने पर झारखंड के श्रमिक काम करते हैं। बारिश का मौसम खत्म होने के बाद अगले सीजन भर के लिए निविदाएं खुल चुकी हैं। लेकिन ठेकेदारों में श्रमिक नहीं मिल रहे हैं।

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श्रमिकों के अभाव में काम शुरू न होने से ठेकेदारों का नुकसान

वेंगुर्ला के रहने वाले सुरेंद्र ठाकुर बताते हैं कि सिर्फ उनके जिले में करीब 2000 नौकाओं से रेत निकालने का काम होता है। खुद उनकी एक नाव पर 13 श्रमिकों का समूह काम करता है। मई-जून में गांव गए ये सभी श्रमिक वापस आने को तैयार हैं। लेकिन वापसी के लिए कोई ट्रेन नहीं मिल रही है। उधर, श्रमिकों के अभाव में काम शुरू न होने से ठेकेदारों का नुकसान हो रहा है।

श्रमिक नहीं आ सके तो हापुस उत्पादकों के लिए पुनः खड़ा हो सकता है संकट 

इसी तरह सिंधुदुर्ग, रत्नागिरी और रायगढ़ में हापुस आमों में बौर आने लगे हैं। इस क्षेत्र के हापुस की सुगंध और स्वाद पूरी दुनिया में मशहूर है। हापुस के बागानों में काम करने वाले लोग ज्यादातर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं। हापुस उत्पादक किसान संघ से जुड़े डॉ. विवेक भिड़े बताते हैं कि ये अपने गांव से करीब छह महीने के लिए कोंकण आते हैं। एक-एक बाग में 25-30 मजदूर रहते हैं। प्रतिमाह आठ से दस हजार रुपये वेतन लेते हैं। बौर आने के बाद उनमें दवा के छिड़काव से लेकर, पैकेजिंग के लिए पेटियां तैयार करना, फिर फल आने पर उन्हें संभालकर तोड़ना, पैकेजिंग करना और देश से विदेश तक भेजने का सारा काम ये श्रमिक ही संभालते हैं। पिछले साल मार्च से ही कोरोना की लहर शुरू हो जाने के कारण हापुस को सही बाजार न मिल पाने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। यदि इस बार समय पर श्रमिक नहीं आ सके तो हापुस उत्पादकों के लिए पुनः संकट खड़ा हो सकता है।

श्रमिक तैयार, ट्रेनें नदारद

कोंकण इलाका मुंबई से गोवा तक समुद्री पट्टी से जुड़ा है। इसलिए मछली पकड़ना यहां का एक प्रमुख व्यवसाय है। लेकिन इस काम में सहायक सिद्ध होते हैं नेपाल से आए हुए श्रमिक। डॉ. भिड़े बताते हैं कि नेपाली श्रमिक एक बार आने के बाद सीजन खत्म होने पर ही अपने गांव जाते हैं। मछली पकड़ने का सीजन रक्षा बंधन से शुरू होकर अगली बारिश शुरू होने, यानी जून तक माना जाता है। सात-आठ महीने इन नेपाली श्रमिकों के भरोसे ही कोंकण में मछली पकड़ने का व्यवसाय चलता है। इस प्रकार मछली पकड़ने से लेकर आम और रेत खनन तक में बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड व नेपाल के पांच लाख से ज्यादा श्रमिक यहां काम करते हैं। इन सभी व्यवसायों का सीजन अब शुरू हो रहा है। लेकिन वापसी की ट्रेनें नदारद हैं।

तत्काल बुकिंग उपलब्ध नहीं

सुरेंद्र ठाकुर कहते हैं कि जैसे सरकार ने इन श्रमिकों को गांव भेजने के लिए श्रमिक विशेष ट्रेनें चलवाई थीं, वैसे ही अब इनकी वापसी के लिए भी विशेष ट्रेनों की व्यवस्था की जानी चाहिए। क्योंकि गांव में इन श्रमिकों के पास काम नहीं है, तो यहां उनके बिना काम रुका पड़ा है। झारखंड से मुंबई के लिए फिलहाल सिर्फ एक ट्रेन हटिया एक्सप्रेस सप्ताह में दो दिन चल रही है। बिहार से भी सिर्फ दो ट्रेनें चल रही हैं। लेकिन इनमें तत्काल बुकिंग उपलब्ध नहीं है। इस तकलीफ को देखते हुए विभिन्न ट्रैवेल एजेंटों ने अपनी दुकान चलानी शुरू कर दी है। श्रमिकों को बस से वापस लाने के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। ताकि जिन्हें जरूरत हो, वे इन एजेंटों के जरिए अपने श्रमिकों को बस से वापस बुलवा लें। लेकिन नेपाल, बिहार से झारखंड से कोंकण की दूरी इतनी है कि मई-जून में पैदल निकल गए श्रमिक अब इन बसों से आने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।


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