Move to Jagran APP

Maharashtra Politics: सत्ता की चाह में अपने ही दोनों सहयोगी दलों के बीच सैंडविच बनती कांग्रेस

Maharashtra Politics महाराष्ट्र की सरकार में साझेदार होने के बावजूद निर्णय प्रक्रिया में कांग्रेस की भागीदारी कहीं दिखाई नहीं देती। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा इसी बात की शिकायत करने पर शिवसेना कांग्रेस को एक बार झड़क भी चुकी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 28 Dec 2020 09:23 AM (IST)Updated: Mon, 28 Dec 2020 02:20 PM (IST)
Maharashtra Politics: सत्ता की चाह में अपने ही दोनों सहयोगी दलों के बीच सैंडविच बनती कांग्रेस
महाराष्ट्र की सत्ता में बने रहना, उसके लिए भागते भूत की लंगोटी जैसा ही है।

ओमप्रकाश तिवारी। Maharashtra Politics एक लोक कहावत है कि सौ-सौ चट्ठे खाव, तमाशा घुसकर देखो। महाराष्ट्र में यही दशा कांग्रेस की हो रही है। उसे साझे की सत्ता में रहना है। इसलिए उसे महाविकास आघाड़ी के अपने दोनों सहयोगियों शिवसेना एवं राकांपा की धौंस और घुड़कियां सहते रहना है। सत्ता की चाह में वह अपने ही दोनों सहयोगी दलों के बीच सैंडविच बनती दिखाई दे रही है।

loksabha election banner

महाराष्ट्र में 105 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद विपक्ष में बैठने को मजबूर भाजपा के नेता अक्सर कहते रहते हैं कि महाराष्ट्र की शिवसेनानीत सरकार को वे नहीं गिराएंगे। बल्कि यह सरकार अपने अंतíवरोधों से कुछ दिनों में स्वयं गिर जाएगी। हालांकि सरकार में शामिल तीनों दल भाजपा के इस दावे को निराधार बताते हुए अपनी एकजुटता का गुणगान करते रहते हैं, लेकिन अंतíवरोध दबा भी नहीं पाते। हाल की दो घटनाएं इसका प्रत्यक्ष सबूत हैं। कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखकर महाविकास आघाड़ी सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को ठीक से लागू करने का ध्यान दिलाया। इस पत्र पर शिवसेना और कांग्रेस एक तरफ सफाई देती, तो राकांपा कुढ़ती नजर आई।

तब शिवसेना नेता संजय राऊत ने यह कहकर बात रफा-दफा करने की कोशिश की कि सोनिया गांधी संप्रग की अध्यक्ष हैं, और महाराष्ट्र की त्रिदलीय सरकार बनाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। इसलिए इस पत्र में दबाव की राजनीति जैसी कोई बात नहीं है। राऊत ने यह कहकर सफाई तो दे दी, लेकिन कांग्रेस को इसका जवाब दिया जाना भी जरूरी था। यह जवाब ही शिवसेना मुखपत्र सामना के संपादकीय में यह लिखकर दिया गया है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को नए नेतृत्व की जरूरत है, क्योंकि कांग्रेस इसका कुशलता से नेतृत्व नहीं कर पा रही है।

यह पहला अवसर नहीं है, जब शिवसेना ने कांग्रेस के विरुद्ध आवाज उठाने की पहल की हो। सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद सामना में ही कांग्रेस को पुरानी खाट बताते हुए उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी। दरअसल शिवसेना की कोई राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं है। महाराष्ट्र में उसका मुख्यमंत्री रहे और मुंबई सहित कुछ बड़ी महानगरपालिकाओं में सत्ता कायम रहे, उसकी इच्छाएं बस यहीं तक सीमित हैं। राकांपा भी क्षेत्रीय दल है। लेकिन उसके नेता शरद पवार राष्ट्रीय राजनीति का स्वाद चख चुके हैं। उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तीन दशक से हिलोरें मार रही है। उनका दल संप्रग का सदस्य भी है। देश के अन्य राज्यों में सक्रिय कई क्षेत्रीय दलों के नेताओं से उनकी अच्छी मित्रता भी है। इसका लाभ उठाकर वह संप्रग का अध्यक्ष बनना चाहते हैं। अब चूंकि महाराष्ट्र का ही एक और दल शिवसेना उनके साथ है। इसलिए उसके मुख से यह मांग उठवाई गई है। वर्ष 1985 में शिवसेना ने भाजपा के साथ भी उसने ऐसा ही समझौता किया था कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा आगे बढ़ेगी, और राज्य की राजनीति में शिवसेना। चूंकि भाजपा राष्ट्रीय दल है, इसलिए वह महाराष्ट्र को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकती थी। उसने महाराष्ट्र में भी अपना जनाधार बढ़ाया।

विधानसभा चुनाव में उसकी जीत का प्रतिशत हमेशा शिवसेना से ज्यादा रहा। राष्ट्रीय राजनीति में उसे शिवसेना की ज्यादा जरूरत नहीं रही और 2014 के विधानसभा चुनाव में वह शिवसेना से अलग लड़कर भी उससे लगभग दोगुनी सीटें जीतने में सफल रही। इसके विपरीत राकांपा अभी शिवसेना से कमजोर स्थिति में है। महाराष्ट्र में उसके जनाधार का अपना निर्धारित दायरा है और राष्ट्रीय राजनीति में उसे शिवसेना की जरूरत है। आज शिवसेना ने शरद पवार को संप्रग अध्यक्ष बनाने के लिए मुंह खोला है, तो कल अन्य राज्यों के भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल भी मुंह खोल सकते हैं। दबाव बढ़ने पर कांग्रेस को संप्रग का अध्यक्ष पद छोड़ना भी पड़ सकता है। इससे भाजपा का नुकसान हो न हो, राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की भूमिका से कांग्रेस जरूर किनारे लग जाएगी।

यहां तक कि शिवसेना-राकांपा के नजदीक आने का नुकसान महाराष्ट्र की अंदरूनी राजनीति में भी कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है। पिछले सप्ताह ही भिवंडी महानगरपालिका में कांग्रेस के 16 सभासद राकांपा में शामिल हो गए। राकांपा और शिवसेना पंचायत चुनावों तथा महानगरपालिका चुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने की बात कर रही हैं। लेकिन महाराष्ट्र कांग्रेस में नेतृत्वविहीनता की स्थिति सर्वविदित है। किसी भी स्तर के चुनाव में सीटों के समझौते की बातचीत करते समय सबसे ज्यादा कांग्रेस को ही दबना पड़े तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। इस प्रकार महाराष्ट्र और राष्ट्र, दोनों स्तरों पर प्रत्यक्ष नुकसान का आभास होते हुए भी कांग्रेस शिवसेना एवं राकांपा के साथ बने रहने को मजबूर है, क्योंकि महाराष्ट्र की सत्ता में बने रहना, उसके लिए भागते भूत की लंगोटी जैसा ही है।

[मुंबई ब्यूरो प्रमुख]


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.