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Maharashtra MLC Election: जानिए, महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में नागपुर में क्यों डूबी भाजपा की नैया

Maharashtra MLC Election नागपुर स्नातक सीट पर हुई पराजय ने विरोधियों को संघ की ताकत पर भी सवाल उठाने का मौका दे दिया है। पता चलता है कि यह हार पिछले विधानसभा चुनाव के पहले से किए जा रहे गलत राजनीतिक आकलन व अतिआत्मविश्वास के कारण हुई है।

By Sachin Kumar MishraEdited By: Published: Sat, 05 Dec 2020 07:56 PM (IST)Updated: Sat, 05 Dec 2020 07:56 PM (IST)
Maharashtra MLC Election: जानिए, महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में नागपुर में क्यों डूबी भाजपा की नैया
जानिए, महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में नागपुर में क्यों डूबी भाजपा की नैया। फाइल फोटो

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। Maharashtra MLC Election: महाराष्ट्र विधान परिषद के चुनाव में भाजपा को मिली हार ने उसकी हैदराबाद की जीत का रंग फीका कर दिया है। खासतौर से नागपुर स्नातक सीट पर हुई पराजय ने विरोधियों को संघ की ताकत पर भी सवाल उठाने का मौका दे दिया है। लेकिन गहराई में जाएं तो पता चलता है कि यह हार पिछले विधानसभा चुनाव के पहले से किए जा रहे गलत राजनीतिक आकलन व अतिआत्मविश्वास के कारण हुई है। यदि प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व अब भी न चेता तो महाराष्ट्र में उसे और बड़े नुकसान भी उठाने पड़ सकते हैं। विधान परिषद की किसी एक सीट पर किसी दल की हार होना कोई बड़ी बात नहीं होती। इसके बावजूद नागपुर स्नातक कोटे की सीट पर भाजपा की हार चर्चा का विषय बन गई है। क्योंकि नागपुर न सिर्फ भाजपा की पितृ संस्था समझी जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय है, बल्कि यह सीट भी पिछले 58 साल से जनसंघ और भाजपा के ही कब्जे में रहती आई है। लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि नागपुर संघ का मुख्यालय भले रहा हो, किंतु 2014 से पहले भाजपा गढ़ कभी नहीं रहा।

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राजनीतिक गढ़ तो यह कांग्रेस का ही रहा है। नितिन गडकरी पहले मूल भाजपाई हैं, जो 2014 में नागपुर से संसद सदस्य चुने गए। उनके पहले भाजपा के टिकट से जीतने वाले बनवारी लाल पुरोहित भी रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान कांग्रेस छोड़कर ही भाजपा में आए थे। संघ वैसे भाजपा के कार्यकलापों में सीधे हस्तक्षेप के लिए नहीं जाना जाता। फिर भी इस सीट पर भाजपा से चूक हुई है। उम्मीदवार चयन से लेकर चुनाव प्रबंधन तक में चूक हुई है। माना जा रहा था कि इस सीट से पिछली बार विधान परिषद में गए अनिल सोले को ही पार्टी टिकट देगी। वह वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी के बाद इस सीट से एमएलसी बने थे, और उन्हीं के करीबी माने जाते हैं। वह पुनः टिकट पाने के लिए आश्वस्त थे, और स्नातक मतदाताओं के पंजीयन में भी लगे हुए थे। अचानक खबर आई कि टिकट उनके बजाय नागपुर के महापौर संदीप जोशी को दे दिया गया है। इससे अनिल सोले खेमे के कार्यकर्ताओं का उत्साह ठंढा पड़ गया।

कोरोना काल के दौरान नागपुर मनपा के आयुक्त तुकाराम मुंडे के विरुद्ध भाजपा कार्यकर्ताओं का आंदोलन भी संदीप जोशी को भारी पड़ा। तुकाराम मुंडे नियम कानून के पाबंद सख्त आइएएस माने जाते हैं। उन्हें भाजपा के विरोध के कारण ही आयुक्त के पद से हटना पड़ा, जबकि जनता में उनकी छवि अच्छी बनी हुई थी। जातीय गणित भी भाजपा उम्मीदवार के विरुद्ध गया। कांग्रेस उम्मीदवार अभिजीत वंजारी उसी अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं, जिससे आइएएस तुकाराम मुंडे व भाजपा की युवा नेता पंकजा मुंडे आती हैं। पिछले चुनाव में अपनी हार का गम पंकजा अभी भी भूल नहीं पाई हैं और इसका दोषी वह पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को मानती हैं। अपनी पीढ़ी के नेताओं में पंकजा अभी भले ही कनिष्ठ हों, लेकिन उनके पिता गोपीनाथ मुंडे के राज्यव्यापी जनाधार से इनकार नहीं किया जा सकता।

चुनाव प्रबंधन में खामियां इस हद तक रहीं कि स्वयं देवेंद्र फड़णवीस के परिवार में चार स्नातक सदस्य होते हुए भी सिर्फ उनका नाम ही मतदाता सूची में था। स्वयं उसी सीट से कई बार विधान परिषद सदस्य रहे नितिन गडकरी भी अपने परिवार से मतदान करने वाले अकेले सदस्य थे। चुनाव पढ़े-लिखे स्नातक कोटे की सीट का था, और कुल पड़े 1,33,053 मतों में से 11,560 मत अवैध पाए गए। जबकि भाजपा उम्मीदवार की हार का अंतर 18,710 मतों का रहा। यह तो रही बात अतिआत्मविश्वास एवं चुनाव प्रबंधन में कमियों की। गलत राजनीतिक आकलन की भूमिका भी कम नहीं रही। खुद देवेंद्र फड़णवीस ने भी यह बात स्वीकार की है कि उनसे आकलन में चूक हुई। वह विरोधियों की ताकत का आकलन करने में चूक की बात कर रहे हैं। लेकिन यह चूक उम्मीदवार के चयन से लेकर अपनी पार्टी को एकजुट रखने तक में हुई है।

फड़णवीस की ओर से चूक का यह सिलसिला पिछला विधानसभा चुनाव शिवसेना को साथ लेकर लड़ने से शुरू हुआ है। 2014 में जब भाजपा अकेले चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सकती थी, तो 2019 में क्यों नहीं ? चुनाव परिणाम आने के बाद भी फड़णवीस यह आकलन करने में विफल रहे कि शिवसेना उनका साथ छोड़कर कांग्रेस-राकांपा के साथ भी जा सकती है। फिर फड़णवीस यह आकलन करने में भी चूके कि जिस अजीत पवार पर भरोसा करके वह उन्हें अपना उपमुख्यमंत्री बनाने जा रहे हैं, वह 72 घंटे भी उनके साथ नहीं टिक पाएंगे। फड़णवीस और उनकी टीम अब भी यह आकलन कर रही है कि तीन दलों की महाराष्ट्र विकास आघाड़ी सरकार अपने अंतर्विरोधों के कारण जल्दी ही गिर जाएगी। लेकिन वह भूल जाते हैं कि इस सरकार के अभिभावक की भूमिका वही शरद पवार निभा रहे हैं, जो 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ने के कुछ माह बाद ही कांग्रेस के साथ मिलकर बनी सरकार लगातार 15 साल चला चुके हैं। 


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