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मध्यप्रदेश की 200 साल पुरानी परंपरा हिंगोट युद्ध, इस बार भी नहीं होगा तुर्रा और कलगी के बीच संघर्ष

कहा जाता है कि मुगल काल में गौतमपुरा क्षेत्र में रियासत की सुरक्षा में तैनात सैनिक मुगल सेना के दुश्मन घुड़सवारों पर हिंगोट दागते थे। सटीक निशाने के लिए वे इसका कड़ा अभ्यास करते थे। कालांतर में यही अभ्यास परंपरा में बदल गया।

By Priti JhaEdited By: Published: Thu, 04 Nov 2021 12:15 PM (IST)Updated: Thu, 04 Nov 2021 12:15 PM (IST)
मध्यप्रदेश की 200 साल पुरानी परंपरा हिंगोट युद्ध, इस बार भी नहीं होगा तुर्रा और कलगी के बीच संघर्ष
मध्यप्रदेश के 200 साल पुरानी परंपरा हिंगोट युद्ध, इस बार भी नहीं होगा तुर्रा और कलगी के बीच संघर्ष

इंदौर, जेएनएन । मध्यप्रदेश के गौतमपुरा की 200 साल पुरानी परंपरा यानी हिंगोट युद्ध इस साल भी नहीं होगा। गांव के बुजुर्गों का कहना है संभवतथ यह पहला मौका है जब लगातार दूसरे साल परंपरा का निर्वाहन नहीं हो पा रहा है। दीपावली के अगले दिन यानी शुक्रवार को गांव के बाहर मैदान में न लोगों का हुजूम उमडेगा न तुर्रा और कलगी दलों के योद्धा एक-दूसरे पर आग के गोले (हिंगोट) फेंकते नजर आएंगे। भले ही इस साल योद्धा घायल नहीं होंगे लेकिन युद्ध टलने से ग्रामीणों के दिल जरूर छलनी हो गए हैं।

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मालूम हो कि कोरोना महामारी की वजह से पिछले साल की तरह इस साल भी युद्ध टाल दिया गया है। इंदौर से करीब 60 किमी दूर स्थित गौतमपुरा में हर साल दीपावली के दूसरे दिन दो गांव गौतमपुरा और रूणजी के ग्रामीणों के बीच हिंगोट युद्ध होता है। इसमें दोनों गांवों के लोग एक-दूसरे पर बारूद से भरे हुए हिंगोट फेंकते हैं। इस अनूठे युद्ध को देखने इंदौर सहित पूरे प्रदेश से लोग पहुंचते हैं। इस युद्ध में कई ग्रामीण हर साल घायल होते हैं। कई बार तो योद्धाओं की तो मृत्यु तक हो चुकी है।

पिछले साल महामारी के चलते जिला प्रशासन ने हिंगोट युद्ध की अनुमति नहीं दी थी। ग्रामीणों को उम्मीद थी कि अंतिम समय में अनुमति जारी हो जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उम्मीद की जा रही थी कि इस बार परम्परा का निर्वाहन होगा और अनुमति मिल जाएगी क्योंकि जिले में कोरोना के संक्रमितों की संख्या बहुत कम हो गई है। संक्रमण दर भी लगातार गिर रही है, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कुछ दिन पहले ही जिला प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी सार्वजनिक आयोजन के लिए अनुमति नहीं दी जाएगी। यही वजह रही कि ग्रामीणों में भी इस परंपरा को लेकर कोई रूचि नहीं दिखाई। हालत यह रही कि गौतमपुरा में हुई शांति समिति की बैठक में एक भी योद्धा शामिल तक नहीं हुआ।

युद्ध की तैयारी के लिए दीपावली से करीब दो महीने पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। लोग हिंगोट का गूदा निकालकर उसे सूखने के लिए छतों पर डाल देते थे। दीपावली के आसपास गौतमपुरा में लगभग हर घर में हिंगोट भरने का काम होता था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।

कहा जाता है कि मुगल काल में गौतमपुरा क्षेत्र में रियासत की सुरक्षा में तैनात सैनिक मुगल सेना के दुश्मन घुड़सवारों पर हिंगोट दागते थे। सटीक निशाने के लिए वे इसका कड़ा अभ्यास करते थे। कालांतर में यही अभ्यास परंपरा में बदल गया।

हिंगोरिया के पेड़ का फल होता है हिंगोट। नींबू आकार के इस फल का बाहरी आवरण बेहद सख्त होता है। युद्ध के लिए गौतमपुरा और रुणजी के रहवासी महीनों पहले चंबल नदी से लगे इलाकों के पेड़ों से हिंगोट तोड़कर जमा कर लेते हैं और गूदा निकालकर इसे सुखा दिया जाता है। फिर इसमें बारूद भरकर इसे तैयार किया जाता है। हिंगोट सीधी दिशा में चले, इसके लिए हिंगोट में बांस की पतली किमची लगाकर तीर जैसा बना दिया जाता है। योद्धा हिंगोट सुलगाकर दूसरे दल के योद्धाओं पर फेंका जाता है। सुरक्षा के लिए दोनों दलों के योद्धाओं के हाथ में ढाल भी रहती है।

जानकारी हो कि हिंगोट युद्ध में गौतमपुरा का दल तुर्रा और रूणजी का दल कलंगी में भिड़ंत होती है। युद्ध शुरू होते ही दोनों दल एक-दूसरे पर जलते हिंगोट से हमला करते हैं। शाम को शुरू होने वाला यह युद्ध अंधेरा गहराने तक जारी रहता है। युद्ध समाप्त होते ही दोनों दलों के योद्धा एक-दूसरे को गले मिलकर बधाई देते हैं।


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