ये खुद तय करें कि किधर जाएंगे आप- 'साईं इतना दीजिए' या फ‍िर 'ये दिल मांगे मोर'

भारतीय दर्शन के वो मूल तत्‍व जो आज भी भारतीय दर्शन को महान बनाते हैं और आज भी सभी समस्‍याओं का समाधान इसी में निहित है।

By Ramesh MishraEdited By: Publish:Thu, 15 Nov 2018 12:42 PM (IST) Updated:Thu, 15 Nov 2018 02:39 PM (IST)
ये खुद तय करें कि किधर जाएंगे आप- 'साईं इतना दीजिए' या फ‍िर 'ये दिल मांगे मोर'
ये खुद तय करें कि किधर जाएंगे आप- 'साईं इतना दीजिए' या फ‍िर 'ये दिल मांगे मोर'

नई दिल्‍ली [ जागरण स्‍पेशल ]। दर्शन न केवल पुस्‍तकाें में अंकित एक विचार है, बल्कि यह एक जीवन पद्धति है। एक जीवन शैली है। एक मूल्‍य है। जीवन जीने की कला है। दर्शन का सरोकार सीधे तौर मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। अगर बात भारतीय दर्शन की हो तो यह मानव जीवन के अधिक निकट है। भारतीय दर्शन ही हमारे देश्‍ा में सामाजिक-सांस्‍कृतिक बहुलवाद, धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक स्‍वरूप की अवधारणा को पोषित करते हैं। लेकिन बाजारवाद और उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति ने आज भारतीय दर्शन को बड़ी चुनौती दी है। देश-दुनिया की कई बड़ी और ज्‍वलंत समस्‍याएं आज भी भारतीय दर्शन के बलबूते जड़ से समाप्‍त हो सकती हैं। कई सामाजिक और राजनीतिक बुराई और विकृतियाें का समाधान भारतीय दर्शन के तत्‍व में निहित है। आइए जानते हैं भारतीय दर्शन के वो मूल तत्‍व जो आज भी भारतीय दर्शन को महान बनाते हैं और आज भी सभी समस्‍याओं का समाधान इसी में निहित है।

संत कबीरदास का सूफी दर्शन आज भी जीवन के लिए उपयोगी है। उन्‍होंने समाज को एक नई रोशनी दी। समाज में समरसता और भाईचारे की भावना के प्रसार के लिए यह आज भी प्रासंगिक है। कबीर ने भेदभाव मिटाने तथा अंधविश्वास को तोड़ने का काम किया। कबीर की रचनाएं प्रेम एकता और भाईचारे का सन्देश देती हैं और समाज का मार्गदर्शन करती हैं।

- पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

2- हिंदू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए मरम न कोउ जाना

3- माला फेरत जुग भया, फ‍िरा न मन का फेर
कर का मनका डार दे मन का मनका फेर
4- कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाए
ता चढि मुल्‍ला बांग दे क्‍या बहरा हुआ  खुदाय
 
5- पाहनपूजै हरि मिले तो मैं पूजूं पहार
ताते यह चाकी भली पीस खाए संसार

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1- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।

संस्‍कृत का यह श्‍लोक यह भारतीय दर्शन की विश्‍व के प्रति अपनी उदात्‍तता का परिचायक है। यह भारतीय दर्शन का मूल मंत्र है। यहां समस्‍त वसुंधरा में सभी के प्रशन्‍न होने और रोगमुक्‍त होने की कामना की जाती है। संस्‍कृत के इस श्‍लोक का अर्थ है - सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। भारतीय दर्शन में देश और समाज के उत्थान की परिकल्पना वसुधैव कुटुम्बकम् से साकार हो सकती है।

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साईं इतना दीजिए या ये दिल मांगे मोर

इस देश में गौतम बुद्ध हुए तो अ‍परिग्रह का संदेश देनेवाले महावीर भी हुए। यह बाबा कबीर की धरती है। जिनका दर्शन था 'साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।' लोभ और लालच के मोह मुक्‍त होकर उन्‍होंने उतना ही चाहा जिसमें उनके परिवार की दैनिक जरूरतें पूरी हो जाएं आैर दरवाजे पर आने वाला कोई सज्‍जन भूखा न जाए। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस महादेश की स्थिति में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है, जिनका यकीन 'साई इतना दीजिए...' के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय 'ये दिल मांगे मोर' के वाचाल स्लोगन में है। सामाजिक मूल्यों मे बदलाव, भोगवादी जीवन शैली ने हमारे दर्शन पर परदा डाल दिया है। इसके चलते समाज में कई समस्‍याएं और चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं।

संतोषी सदा सुखी की राह से भटक गए हम

हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है- संतोषी सदा सुखी। हालात के मुताबिक ख़ुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। दुनिया में भारत ही संभवत: एकमात्र ऐसा देश है जहां आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव मनते रहते हैं, जिनमें मग्न रहते हुए ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द में भी ख़ुश रहने की कोशिश करता है। असंतोष ने प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष कई तरह की साम‍ाजिक बुराइयाें को जन्‍म दिया है। इसमें जो पिछड़ता है वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है, वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है। इस समस्‍या का समाधान भी भारतीय दर्शन में निहित है।

संयुक्‍त की जगह एकल परिवारों के चलन ने लोगों को बड़े-बुज़ुर्गों के सानिध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है। ज़िंदगी का मतलब सिर्फ़ 'सफल' होना नहीं, बल्कि समभाव से उसे जीना है। ज़ाहिर है, इसी का दुष्प्रभाव बढ़ती आत्महत्याओं, नशाखोरी, घरेलू कलह, रोडरेज और अन्य आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में दिख रहा है।

2002 से मनाया जा रहा है विश्व दर्शन दिवस

विश्व दर्शन दिवस प्रतिवर्ष नवम्बर माह के तीसरे गुरुवार को मनाया जाता है। वर्ष 2002 से यूनेस्को ने विश्व दर्शन दिवस मनाने की परंपरा प्रारंभ की। वर्ष 2005 में यूनेस्को सम्मेलन में यह निश्चय हुआ कि प्रत्येक वर्ष विश्व दर्शन दिवस नवंबर महीने के तीसरे गुरुवार को मनाया जाएगा। विश्व दर्शन दिवस उन दार्शनिकों के सम्मान में मनाया जाता है, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को स्वतंत्र विचारों के लिए स्थान उपलब्ध कराया। इस दिवस का उद्देश्य दार्शनिक विरासत को साझा करने के लिए विश्व के सभी लोगों को प्रोत्साहित करना और नए विचारों के लिए खुलापन लाने के साथ-साथ बुद्धिजीवियों एवं सभ्य समाज को सामाजिक चुनौतियों से लड़ने के लिए विचार विर्मश को प्रेरित करना है।

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