राष्ट्रपति शी चिनफिंग के सामने चीन की समृद्धि को बचाए रखने की है चुनौती

शी चिनफिंग ने निजी कंपनियों पर लगाम लगाकर सभी चीनियों की समान समृद्धि का रास्ता चुना है। यह ऐसा रास्ता है जिस पर चलने वाली अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। राष्ट्रपति शी चिनफिंग के सामने चीन की समृद्धि को बचाए रखने की है चुनौती। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 07 Oct 2021 09:14 AM (IST) Updated:Thu, 07 Oct 2021 02:45 PM (IST)
राष्ट्रपति शी चिनफिंग के सामने चीन की समृद्धि को बचाए रखने की है चुनौती
यह साम्यवादी शासन व्यवस्था की मूलभूत खामी है।

नीलू रंजन। पिछली सदी के नौवें दशक में जब दुनिया की साम्यवादी सरकारें धराशायी हो रही थीं और उनके द्वारा शासित देश टुकड़ों में बंट रहे थे, तब चीन एकमात्र ऐसी साम्यवादी शासन व्यवस्था वाला देश था, जिसने समृद्धि की ओर कदम बढ़ाना शुरू कर दिया था। उस समय दुनिया भर के मार्क्‍सवादी विचारकों में चीन की पूंजीवाद की ओर नई शुरुआत को लेकर बहस शुरू हो गई थी। मार्क्‍सवादी विचारकों का मानना था कि बाजार पर आधारित साम्यवादी अर्थव्यवस्था की तरफ चीन का सफर आत्मघाती साबित होगा।

इस रास्ते पर चलकर चीन न तो पूंजीवादी देशों की तरह सफल अर्थव्यवस्था बन सकेगा और न ही साम्यवाद के संसाधनों के समान बंटवारे के मूल सिद्धांत पर कायम रख सकेगा, लेकिन 1978 के बाद शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद चीन में आई समृद्धि ने मार्क्‍सवादी विचारकों के मुंह पर ताला लगा दिया। चीन पिछले चार दशकों तक दुनिया में सबसे तेज गति से विकास करने वाला देश बना रहा और सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय बनी दुनिया में खुद को अमेरिका के सामने दूसरे ध्रुव के रूप में खड़ा करने में सफल भी रहा। 13 टिलियन डालर के साथ चीन आज अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तमाम अर्थशास्त्री 2032 तक इसके अमेरिका से आगे निकल जाने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं।

वर्ष 2020 में कोरोना के वैश्विक प्रकोप के पहले चीन को चुनौती देने वाला दुनिया में कोई देश नजर नहीं आ रहा था। यही नहीं, बेल्ट एंड रोड एनिशिएटिव (बीआरआइ) के माध्यम से चीन ने दुनिया में कूटनीतिक बादशाहत कायम करने की कोशिश शुरू कर दी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तमाम पाबंदियों और धमकियों के बावजूद चीन की विकास की रफ्तार कायम रही। पूरी दुनिया में कोरोना के फैलने के बाद चीन के खिलाफ जनमानस तो तैयार हुआ, लेकिन सीधे उसे चुनौती देने की हिम्मत किसी देश में नहीं थी। चीन की विस्तारवादी नीतियों से परेशान भारत, आस्ट्रेलिया और जापान को अमेरिका का साथ जरूर मिला और क्वाड के रूप में एक चीन विरोधी गठबंधन भी सामने आया। दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाए रखने के लिए सप्लाई चेन के रूप में चीन पर निर्भरता खत्म करने की बात भी शुरू हुई, लेकिन उसे साकार में होने में काफी वक्त लगेगा।

हैरानी की बात है कि जब अमेरिका समेत पूरी दुनिया चीन को एक वैश्विक ताकत मान चुकी है, तभी चिनफिंग ने अक्टूबर 2020 में एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति जैक मा के खिलाफ कार्रवाई कर दी। शुरू में इसे जैक मा के खिलाफ चिनफिंग की निजी रंजिश का नतीजा माना गया, पर बाद में जब दूसरी कंपनियों पर नकेल कसी जाने लगी तो साफ हो गया कि चीन ने साम्यवादी जड़ों की ओर लौटने का फैसला कर लिया है।

सामान्यरूप से चीन के वापस साम्यवाद की ओर लौटने के फैसले में कोई बुराई नजर नहीं आती है, लेकिन साम्यवाद की विचारधारा के मूल में ही ऐसी खामी है, जो इसे अपनाने वाले देशों को अंधी सुंरग में धकेल देती है। जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं बचता है। दरअसल मार्क्‍सवाद का मूल सिद्धांत पूंजी के समान बंटवारे पर टिका है, जहां न कोई अमीर होगा और न ही कोई गरीब। संपत्ति और संसाधनों पर सबका बराबर का हक होगा। सचमुच में यह क्रांतिकारी सोच है, जो लंबे समय से पूरी दुनिया में युवाओं ओर बुद्धिजिवियों के एक वर्ग को अभिभूत करता रहा है। 20वीं सदी की शुरुआत में रूसी क्रांति और उसके बाद सोवियत संघ के गठन के साथ इस सोच को मूर्त रूप देने का काम शुरू हुआ। सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी शासन व्यवस्था वाले देशों की लंबी सूची रही, पर छह दशक में ही यह अपने बोझ के कारण बिखरनी शुरू हो गई।

साम्यवादी शासन व्यवस्था की सबसे बड़ी कमजोरी पूंजी के विकास को अवरुद्ध करना रहा। इसे लागू करने वाले सभी नेताओं का पूरा जोर मौजूदा संसाधनों और पूंजी के समान बंटवारे पर रहा और इस क्रम में संसाधनों और पूंजी के विकास की स्वाभाविक गति को ही अवरुद्ध कर दिया गया। इसका दुष्परिणाम सभी साम्यवादी शासन वाले देशों में देखने को मिला। इसे पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के उदाहरण से समझा जा सकता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी क्रमश: सोवियत संघ और अमेरिका के बीच में बंट गए। सोवियत संघ ने पूर्वी जर्मनी में साम्यवादी शासन प्रणाली लागू की, जिसमें पूंजी के समान बंटवारे के सिद्धांत पर संसाधनों पर नागरिकों को समान अधिकार दिया गया। वहीं पश्चिम जर्मनी में पूंजीवादी शासन प्रणाली लागू हुई, जिसमें पूंजी के अनंत विकास के दरवाजे खोल दिए गए। बंटवारे के समय पूर्वी जर्मनी की प्रति व्यक्ति आय पश्चिमी जर्मनी से अधिक थी, पर 1991 में पूर्वी और पश्चिम जर्मनी के एकीकरण के समय पूर्वी जर्मनी की प्रति व्यक्ति आय पश्चिम जर्मनी की तुलना में एक तिहाई से भी कम रह गई थी। साफ है पूंजी-संसाधनों के समान बंटवारे के बावजूद पूर्वी जर्मनी के लोगों की आíथक स्थिति लगातार बदतर होती गई। यह साम्यवादी शासन व्यवस्था की मूलभूत खामी है।

बहरहाल चिनफिंग को भले ही लग रहा हो कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीन ने पिछले चार दशकों में अपने दम पर विकास की नई ऊंचाइयों को छुआ है, लेकिन सच्चाई यही है कि इसमें पूंजीवादी देशों से बड़े पैमाने पर आई पूंजी का कमाल ज्यादा था। जाहिर है पूंजी की दिशा पलटने के बाद चीन के लिए विकास की रफ्तार को बनाए रखना और इससे अभी तक हासिल समृद्धि को बचाए रखना आसान नहीं होगा। पिछले एक साल में ही इसके संकेत मिलने भी शुरू हो गए हैं।

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