बंगाल में ये है ममता की जीत का ब्रह्मास्त्र, 2015 में बिहार, 2019 झारखंड में इसी मुद्दे पर भाजपा को मिली थी हार

पिछले सात वर्षो में राज्यों में जितने भी विधानसभा चुनाव हुए उसमें से ज्यादातर जगहों पर भाजपा को जीत मिली। जिन जगहों पर भाजपा की जीत नहीं मिली उनमें एक मुद्दा अस्मिता काफी समान है जिसे आजमाने वाली पाíटयां भाजपा को हराने में सफल हुई है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sun, 02 May 2021 09:40 PM (IST) Updated:Mon, 03 May 2021 08:26 AM (IST)
बंगाल में ये है ममता की जीत का ब्रह्मास्त्र, 2015 में बिहार, 2019 झारखंड में इसी मुद्दे पर भाजपा को मिली थी हार
प्रशांत किशोर का आजमाया हुआ अस्त्र है अस्मिता का कार्ड

जयकृष्ण वाजपेयी, कोलकाता। प्रचंड बहुमत के साथ तीसरी बार ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। ममता की इस करिश्माई जीत की वजह तलाशें तो वैसे तो कई बातें सामने आ रही हैं, लेकिन 2014 के बाद हुए विधान सभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि एक मुद्दा ऐसा है जिसके सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की रणनीति निस्तेज हो जा रही है और वह है 'अस्मिता' का मुद्दा। क्योंकि, 2015 में बिहार और पिछले विधानसभा चुनाव में झारखंड में इसी अस्मिता के मुद्दे पर भाजपा को हार मिली थी। यही कार्ड से गुजरात में मोदी ने भी पिछले चुनाव में जीत दिलाई थी।

पिछले सात वर्षो में राज्यों में जितने भी विधानसभा चुनाव हुए उसमें से ज्यादातर जगहों पर भाजपा को जीत मिली। जिन जगहों पर भाजपा की जीत नहीं मिली, उनमें एक मुद्दा 'अस्मिता' काफी समान है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे आजमाने वाली पाíटयां भाजपा को हराने में सफल हुई है। बंगाल के पूरे चुनाव अभियान नजर डालें तो एक बात काफी अहम है। तृणमूल ने जोर-शोर से 'बंगाली अस्मिता' के मुद्दे पर पीएम मोदी से लेकर अमित शाह समेत भाजपा के तमाम नेताओं को घेरा था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मंच से कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर के गलत जन्म स्थान का नाम ले लिया था। इस मुद्दे को तृणमूल ने ऐसा लपका कि पूरे चुनाव प्रचार में पार्टी के सारे नेता यही कहते रहे कि जिन लोगों को कविगुरु टैगोर की जन्म स्थान के बारे में मालूम नहीं है वह सोनार बांग्ला का बनाने की बातें कह रहे हैं।

पूरे चुनाव प्रचार में ममता बनर्जी समेत तृणमूल के तमाम नेता यही कहते रहे कि पीएम मोदी और शाह गुजराती हैं और बंगाल में गुजरात के लोगों को राज नहीं होने देंगे। भाजपा ने सुवेंदु अधिकारी, मुकुल रॉय, मिथुन चक्रवर्ती समेत कुछ नेताओं के चेहरे आगे कर अस्मिता के मुद्दे को दबाने की कोशिश की लेकिन जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। 2014 के बाद से ही भाजपा लगातार विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहरे पर लड़ती रही है, जिसमें कई जगह उन्हें जीत भी मिली भी। इसका एक पहलू ये भी है कि जिन नेताओं ने मोदी-शाही की जोड़ी के सामने 'अस्मिता' का कार्ड खेला तो भाजपा हार गई।

प्रशांत किशोर का आजमाया हुआ अस्त्र है अस्मिता

बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठाया तो उस समय उनका चुनावी प्रबंधन संभाल रहे प्रशांति किशोर ने जवाब में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) से पूरे राज्य में कैंपेन चलाकर मैसेज देने की कोशिश की कि गुजरात से आए नेता बिहारी डीएनए पर सवाल उठा रहे हैं। पीएम मोदी ने कितनी भी सफाई देने की कोशिश की लेकिन आखिरकार भाजपा को चुनाव में हार मिली। नीतीश कुमार बिहारी अस्मिता का मुद्दा उठाकर राज्य की जनता को समझाने में सफल रहे कि गुजरात से आए नेता उनमें खामी निकाल रहे हैं। इसी ब्रह्मास्त्र को प्रशांत किशोर ने ममता को थमा दिया और नतीजा सामने है।

हेमंत सोरेन ने भी खेला था अस्मिता कार्ड

2014 में झारखंड विधानसभा चुनाव में जीत मिलने के बाद बीजेपी ने गैर आदिवासी चेहरा रघुवर दास को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। इसके जवाब में 2019 के विधानसभा चुनाव में जेएमएम के नेता हेमंत सोरेन ने आदिवासी अस्मिता को मुद्दा बनाया। हेमंत हर रैलियों में कहते कि गुजरात से आए नेता झारखंड की संस्कृति को खत्म करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने गैर आदिवासी को सीएम बनाया। इसका हेमंत सोरेन को फायदा हुआ और आज वह सीएम बने हुए हैं।

तेलंगाना, पंजाब से लेकर राजस्थान में भी खेला गया था अस्मिता कार्ड

तेलंगाना में टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, राजस्थान में अशोक गहलोत जैसे नेताओं ने भी अस्मिता कार्ड खेलकर सत्ता हासिल की है। इसके अलावा हरियाणा में खट्टर को पंजाबी बताकर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी अच्छा प्रदर्शन किया था।

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