रोजा : विनम्रता व संतोष का दर्शन!
-महीने भर हर दिन निर्जला उपवास करा देता है निर्धनों की भूख-प्यास का एहसास -आजीवन हर
-महीने भर हर दिन निर्जला उपवास करा देता है निर्धनों की भूख-प्यास का एहसास
-आजीवन हर साल महीने भर का प्रयोग व्यक्ति को संयमित जीवन की देता है सीख इरफान-ए-आजम, सिलीगुड़ी : मिट्टी से बने इंसान को मिट्टी में ही मिल जाना है। यह हर कोई जानता है। मगर, फिर भी घमंड, अकड़, झूठी शान, अहं से सब ग्रसित है। इसी अहं को तोड़ने का दर्शन देता है पवित्र रमजान महीने का एक-एक रोजा। यह व्यक्ति को लालच-हवस से परे संतोष करना सिखाता है। पवित्र रमजान महीने का चांद नजर आ जाने के बाद से ईद का चांद नजर आ जाने तक पूरे एक महीने लगातार रोजाना सूर्योदय के कुछ पूर्व से सूर्यास्त के कुछ पश्चात तक लगभग 15 घंटे के निर्जला उपवास की अनिवार्यता में ही संतोष का संदेश निहित है।
खाने-पीने की समस्त सामग्री उपलब्ध रहने एवं खाने-पीने पर अपनी इच्छा व नियंत्रण रहने के बावजूद व्यक्ति न खा सकता है न पी सकता है। इतना ही नहीं रोजा की अवस्था में एक पति के अपनी पत्नी अथवा एक पत्नी के अपने पति से शारीरिक संबंध तक वर्जित होते हैं। इच्छा के बावजूद वे इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकते क्योंकि रोजे की बाध्यता होती है। इसी से समझा जा सकता है कि रमजान और रमजान के रोजे के ये प्रयोग व्यक्ति को कितना संतोषी बना देते हैं। पूरे महीने दिन भर भूखे-प्यासे रहने से व्यक्ति को जहां निर्धनों की भूख-प्यास का अहसास हो जाता है वहीं सर्वशक्तिमान अल्लाह पाक की कृपा भी समझ में आ जाती है कि उसे मालिक ने औरों से कितना खुशहाल रखा है। ऐसे में उसके स्वभाव में एक सकारात्मक परिवर्तन आ जाता है और वह विनम्रता को अपने जीवन का अंग बना लेता है।
वास्तव में रमजान का रोजा व्यक्ति को अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखने का प्रायोगिक दर्शन देता है। यह दर्शन केवल एक अथवा दो दिन के रोजा (उपवास, व्रत) में मिल पाना संभव नहीं है। इसीलिए इस्लाम धर्म में हर महीने एक-दो नफली (ऐच्छिक) रोजे रखने की परंपरा के बावजूद पवित्र रमजान महीने में पूरे महीने भर रोजा का यह प्रयोग अनिवार्य किया गया है। स्वस्थ व शारीरिक रूप से सक्षम व्यक्ति चाहे न चाहे उसे अनिवार्य रूप से रोजा रखना होगा। यदि उसकी सर्वशक्तिमान अल्लाह में आस्था है तो वह उसके आदेशानुसार रोजा और रोजे के समस्त विधि-विधान का पूरी निष्ठा से पालन कर अल्लाह पाक को राजी कर नेक लोगों में सम्मिलित हो स्वर्ग प्राप्ति का हकदार बनेगा। अन्यथा, उसके आदेशों की अवहेलना कर बुरे लोगों में गिना जाएगा और नर्क में नारकीय यंत्रणा का भोगी होगा। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने जमीन पर चलने में भी यह नसीहत की है कि अकड़ कर मत चलो। जमीन पर लात का जोर मार कर मत चलो। निगाहें नीची रख कर चला करो। चलने में भी विनम्रता झलकनी चाहिए। उनकी ऐसी ही नसीहतों का हर साल पूरे महीने भर आजीवन चक्र अनुसार प्रयोग चलते रहना व्यक्ति को सचमुच विनम्र व संतोषी बना देता है। इसके लिए शर्त है कि व्यक्ति दिखावा से परे पूरी आस्था व निष्ठा संग इसका अनुपालन करे।