नेता जी ने कहा था अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध: राजू बिष्ट

सांसद राजू बिष्ट ने कहा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कोई नहीं भूल सकता। 23 जनवरी शनिवार को आज हम उनकी 125 वीं जयंती मना रहे है। नेताजी के विचार अगर आप अपने जीवन में उतार लें तो आपको सफलता ही सफलता मिलेगी।

By Nitin AroraEdited By: Publish:Sat, 23 Jan 2021 04:01 PM (IST) Updated:Sat, 23 Jan 2021 04:01 PM (IST)
नेता जी ने कहा था अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध: राजू बिष्ट
सिलीगुड़ी में पराक्रम दिवस के उपलक्ष में निकाली गई रैली में घोड़े पर सवार सांसद राजू बिष्ट

सिलीगुड़ी, जागरण संवाददाता। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्म जयंती वर्ष पर शनिवार को सिलीगुड़ी में भारतीय जनता युवा मोर्चा द्वारा आयोजित पराक्रम रैली में दार्जिलिंग के सांसद व भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजू बिष्ट व भाजपा प्रदेश संगठन मंत्री किशोर बर्मन ने इसका नेतृत्व किया। इस मौके पर नेताजी के वेशभूषा मैं युवाओं ने प्रदर्शन किया। पराक्रम दिवस पर पराक्रम दिखाते हुए भाजपा के सांसद और संगठन मंत्री ने अश्व की सवारी कर अपने पराक्रम का परिचय दिया।

इस मौके पर सांसद राजू बिष्ट ने कहा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कोई नहीं भूल सकता। 23 जनवरी शनिवार को आज हम  उनकी 125 वीं जयंती मना रहे  है। वैसे आज हम आपको बताने जा रहे हैं नेताजी के ऐसे विचार जिन्हे अगर आप अपने जीवन में उतार लें तो आपको सफलता ही सफलता मिलेगी।

उन्होंने कहा था याद रखिये सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है। संघर्षों ने मुझे मनुष्य बनाया, इसके कारण मुझमे ऐसा आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ जो मेरे में पहले कभी नहीं था। हमेशा संघर्षों और उनके जरिए समाधानों से ही आगे बढ़ा जाता है।

नेताजी 20 जुलाई, 1921 को वो मुंबई में महात्मा गांधी से मिले। 1922 में सुभाष चन्द्र बोस कोलकाता महानगरपालिका का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने। उन्होंने बेहतरीन काम किया और कलकत्ता की सड़कों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय कर दिया। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में प्राण न्योछावर करने वालों के परिजनों को महानगरपालिका में नौकरियां भी दी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए, बोस ने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज का गठन किया। उनका नारा 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया। 5 जुलाई, 1943 को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने 'सुप्रीम कमांडर' के रूप में अपनी सेना को संबोधित करते हुए 'दिल्ली चलो' का नारा दिया। 'जय हिंद' उनका 'युद्ध धोष' बना। 21 अक्तूबर, 1943 को आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की 'अस्थायी सरकार' बनायी। इस सेना को जर्मनी, जापान, कोरिया, चीन, इटली, मान्छेको और आयरलैंड ने मान्यता दी। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, युद्धमंत्री व प्रधान सेनापति बन गये।

आजादी के लिए कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया, जो एक लंबा और बहुत ही भयानक युद्ध था लेकिन, बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

नेता जी बोस को दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। 3 मई, 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अंदर ही 'फॉरवर्ड ब्लॉक' के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। बाद में 'फॉरवर्ड ब्लॉक' अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बनाई। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की। अगले ही साल जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था

सुभाष चन्द्र बोस की यूथ ब्रिगेड ने रातों-रात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है, उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे। 16 जनवरी, 1941 को सुभाष पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले और पेशावर पहुंचे। वहां से गूंगा-बहरा बनकर पहाड़ियों में पैदल चलते हुए काबुल पहुंचे।

काबुल में दो महीनों तक रहने के बाद, जर्मन और इटालियन दूतावासों की सहायता से, आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाष काबुल से निकलकर, रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे। 29 मई, 1942 के दिन सुभाष जी जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। हिटलर से अपेक्षित सहायता नहीं मिली।

सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी बोस ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस को सौंपा था। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार, नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी। लेकिन, उनकी मृत्यु आज भी एक रहस्य बनी हुई है।

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