पार्टीजनों की सुरक्षा के प्रति गंभीर हों भाजपानेता

मतगणना के बाद हुई हिंसा से समर्थकों व कार्यकर्ताओं में बेचैनी -समय रहते नहीं चेती पार्टी तो वृह

By JagranEdited By: Publish:Fri, 07 May 2021 08:34 PM (IST) Updated:Fri, 07 May 2021 08:34 PM (IST)
पार्टीजनों की सुरक्षा के प्रति गंभीर हों भाजपानेता
पार्टीजनों की सुरक्षा के प्रति गंभीर हों भाजपानेता

मतगणना के बाद हुई हिंसा से समर्थकों व कार्यकर्ताओं में बेचैनी

-समय रहते नहीं चेती पार्टी तो वृहदस्तर दूसरे दलों में जा सकते समर्थक व कार्यकर्ता

समय रहते नहीं उठाया कदम तो टूट जाएगी पार्टी, पार्टी समर्थकों में भगदड़ बचने की आशका

-केंद्रीय व प्रदेश स्तरीय नेताओं में जारी है मंथन,पार्टीजनों को एक जुट रखना बड़ी चुनौती

अशोक झा, सिलीगुड़ी : उत्तर बंगाल से भारतीय जनता पार्टी ने 33 सीटों पर विजय तो जरूर हासिल कर ली। मगर चुनाव परिणाम आते ही जिस तरह से उत्तर बंगाल के विभिन्न जिलों मैं चुनावी हिंसा होना शुरू हुई उससे भाजपा के कट्टंर समर्थकों व कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने लगा है। पार्टी के राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर के नेताओं को इस बारे में गंभीरता से मंथन करना चाहिए वरना इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि आने वाले दिनों में हिंसा से भयभीत हो बहुतायत में भाजपा समर्थक व कार्यकर्ता दूसरे दलों में शामिल न हों। इसके लिए अभी से भाजपा के वरिष्ठजनों को गंभीर होने की जरूरत है तथा इस दिशा में विशेष रूप से पहल करें ताकि पार्टी को जिताने वाला वर्ग सुरक्षित हो। अगर पार्टी को जिताने वाला ही असुरक्षित होगा तो ऐसी स्थिति में पार्टी की स्थिति जितनी बेहतर हुई है उससे अधिक कमजोर होने में समय नहीं लगेगा।

विरोधी दल का नेता कौन होता है इस पर भी सब की नजर टिकी हुई है। इसका असर पार्टी और संगठन दोनों पर पड़ेगा। सुवेन्दु अधिकारी अपने भविष्य को सुरक्षित करने में जुट गए हैं। इसी तरह से संगठन में भी तृणमूल से आए नेताओं को व्यवस्थित करने की होड़ मच सकती है। सभी की निगाह पश्चिम बंगाल की भावी भाजपा पर है। पश्चिम बंगाल में भाजपा ही नहीं हारी, और भी बहुत कुछ हारा है और सिर्फ तृणमूल काग्रेस ही नहीं जीती, और भी बहुत कुछ जीता है इस लड़ाई में। बंगाल के इस चुनाव में देश पर एकछत्र राज का सपना देखने वाली भाजपा ने अपनी सारी ताकत झोंकी थी। उसकी रैलिया उस अवधि में हुईं जबकि देश कोरोना की दूसरी लहर को डोल रहा था। यह समय महामारी के खिलाफ युद्ध लड़ने का था। सवाल पूछा गया था, और अब भी पूछा जा रहा है कि सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को इस चुनाव को स्थगित करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था? क्या आसमान टूट पड़ता यदि ये चुनाव दो-चार महीने बाद होते? भीड़-भरी रैलियों में अपनी लोकप्रियता और सफलता देखने वाले हमारे राजनेताओं को कहीं नहीं लगा कि यह भीड़ कोरोना को निमंत्रण देने वाली है। यह विडंबना ही है कि सारे चुनाव अभियान में एक बार भी कोरोना का नाम न लेने वाली ममता दीदी की नई सरकार को सबसे पहले अपने राज्य में कोरोना से जूझना पड़ रहा है। उन्होंने सही कहा कि यह उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है, पर सही यह भी है कि पिछले एक-दो माह में कोरोना के खतरे को नजरंदाज कर हमारे नेताओं ने आपराधिक काम किया है। बहरहाल, बंगाल के इस चुनाव में दाव पर हमारे संवैधानिक मूल्य भी थे। हमारा देश पंथ-निरपेक्ष है। हमारा संविधान हर धर्म को पनपने का अवसर देने का वादा करता है। हमारी परंपरा यह कहती है कि राजनीतिक वर्चस्व के लिए किसी को भी धर्म का सहारा लेने की आजादी नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद हमने देखा कि धर्म के नाम पर खुलेआम वोट मागे गए। चुनाव से पहले या चुनाव के बाद किसी उपासना-स्थल पर जाना तो फिर भी समझ में आता है, पर चुनाव-प्रसार के दौरान किसी के हिंदू होने पर शक करना या किसी को मुस्लिम परस्त बताना धर्म के दुरुपयोग का उदाहरण ही माना जाना चाहिए। जानकारों का कहना है कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा कोई नई चीज नहीं है, लेकिन जिस तरह से चुनाव के दो महीने पहले से माहौल बनने लगा था, उससे यही उम्मीद थी। भाजपा के नेता व राष्ट्रीय प्रवक्ता राजू बिष्ट का कहना है कि पार्टी के एक नेता कहते हैं कि कदाचित भाजपा जीतती तब भी कुछ बड़ा ही होता। यह बात अलग है कि चुनाव में तृणमूल जीत गई। पार्टी एकजुट है और आगे भी रहेगी।

हमारी मलाई तृणमूल के अवसरवादी खा गए

भाजपा सूत्र का कहना है कि तीन दशक से अधिक समय के संघर्ष के बाद अब पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव लड़ने का समय आया था। इसे तृणमूल से भाजपा में आए नेता ले उड़े। भाजपा नेताओं का कहना है कि एक अच्छा अवसर हाथ से निकल गया। बताते हैं कि चुनाव से पहले पार्टी के शीर्ष पदाधिकारियों की बैठक हुई थी। इसमें भाजपा महासचिव और पश्चिम बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष भी थे। प्रस्ताव रखा गया कि लोकसभा में भाजपा ने जिन 18 सीटों को जीता है, उसके दायरे में 121 सीटें आती हैं। यहा से भाजपा के मूल कार्यकर्ता और नेताओं को चुनाव लड़ाना चाहिए। सूत्र का कहना था कि इसे अच्छा प्रस्ताव माना गया, लेकिन बाद में चार्टर्ड प्लेन, पैराशूट से उतरे नेताओं के कारण सबकुछ बिगड़ गया। सूत्र का कहना है कि इसे केन्द्रीय नेतृत्व भी समझ रहा है, लेकिन यह मुद्दा अब उठाए कौन? भाजपा के नेता, कार्यकर्ता जीते 69 और तृणमूल छाप भाजपाई केवल आठ सीटें ही जीत पाये। भाजपा के खेमे में इस बात की चर्चा है कि भाजपा में आए नेताओं ने मनमाफिक तरीके से राज्य की 140 सीटों को चुन लिया था। इनमें लोकसभा में जीती गई 18 सीटों के प्रभाव वाली 121 सीटें भी शामिल थी। भाजपा के पुराने नेताओं, कार्यकर्ताओं के जिम्मे मुश्किल वाली 152 सीटें आई। कुल 292 सीट पर चुनाव लड़ा गया। लेकिन नतीजा आया तो तृणमूल से आए नेता केवल आठ सीटें जीत सके। भाजपा के नेता, कार्यकर्ताओं ने 69 सीटें जीत लीं। सूत्र का कहना है कि केन्द्रीय नेतृत्व को इस बारे में सोचना चाहिए।

हार के बाद अब नैरटिव बदल रहा है

भाजपा के नेताओं का कहना है कि सितंबर-अक्टूबर 2020 तक हमें भरोसा था कि चुनाव बाद सरकार बना लेंगे। ममता बनर्जी और तृणमूल की पराजय तय है। इसी भरोसे से केंद्रीय गृहमंत्री समेत सभी नेता 200 से अधिक सीटें जीतने का दावा कर रहे थे, लेकिन हम हार गए।

हार के चार बड़े कारणों पर हो रही समीक्षा

तृणमूल से आए नेताओं को अधिक महत्व मिलने के कारण पुराने भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं में निराशा बढ़ी। वे घर बैठ गए या फिर केवल दिखावे के लिए निकले। तर्क है कि तृणमूल के जिन नेताओं से हमारे नेता पिटे, मार खाए, उनके पार्टी में आने के बाद झडा कैसे उठाते?

सोनार बाग्ला की बात करके भाजपा हिन्दी भाषी, उ.प्र. बिहार, दूसरे राज्य के नेताओं पर झुक गई। तृणमूल काग्रेस ने बंगाली अस्मिता की राह पकड़ ली।

वर्ष 2016 के बाद से भाजपा ममता बनर्जी के राज से मुक्ति दिलाने की आवाज उठा रही थी, लेकिन उसके आरोपी, गुंडा छाप नेताओं के पार्टी में आने के बाद पार्टी विद डिफरेंस का मतलब ही खत्म हो गया। बंगाल के लोगों को लगा कि भाजपा दूसरा तृणमूल हो गई है। इसलिए सब ममता बनर्जी के साथ चले गए।

मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर तृणमूल के पास ममता बनर्जी का चेहरा था। भाजपा चेहरा घोषित करने से परहेज करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही थी। अब देखना है कि हिंसा पर कैसे लगाएं लगवा सकती है बीजेपी और अपने कार्यकर्ताओं को एकजुट रखती है।

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