राजनीतिक हिंसा को लेकर गुस्से में विद्यार्थी परिषद
-दलगत राजनीति से उपर उठकर हिंसा रोकने के लिए देना होगा जबाव -केंद्रीय मंत्री पर भी हो
-दलगत राजनीति से उपर उठकर हिंसा रोकने के लिए देना होगा जबाव
-केंद्रीय मंत्री पर भी हो रहे हमले, जब जांच को गयी है केंद्रीय गृह मंत्रालय की टीम
जागरण संवाददाता, सिलीगुड़ी : बंगाल की राजनीतिक हिंसा को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता व कार्यकर्ता गुस्से में है। क्योंकि ेहिंसा का शिकार विद्यार्थी परिषद के कोलकाता कार्यालय को होना पड़ा है। एबीवीपी की राष्ट्रीय महासचिव निधि त्रिपाठी का कहना है कि हिंसा किसी राजनीति का हिस्सा भी हो सकता है यह पहली बार बंगाल में देखने को मिला। हद तो है कि इस हिंसा को लेकर ममता बनर्जी इसे अफवाह और साजिश बता रही है। केंद्रीय गृहमंत्रालय की टीम जांच के लिए बंगाल गयी है और ऐसे में केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री के काफिले पर हमला किया गया है। दलगत राजनीति से उपर उठकर इस प्रकार की हिंसा को रोकने के लिए सभी को आगे आना होगा। उन्होंने कहा कि यह कैसी बिडम्बना है कि स्वयं को पत्रकार और स्तंभकार कहने वाले लोग ममता बनर्जी से इन हत्याओं पर प्रश्न पूछने से कतरा रहे है। इस समय उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में कैसे आ जाना चाहिए, इसके लिए तरह-तरह का मशविरा देते हुए कलम घिस रहे हैं। निरपराध लोगों की गर्दनें काटी जा रही हैं। नैरेटिव सैटर आगामी सात राज्यों में भाजपा को कैसे पराजित किया जाए, इसकी चिंता में लगे हैं। यदि बंगाल के स्थान पर भाजपा शासित किसी राज्य में इस प्रकार विरोधी दल के कार्यालय में आग लगाई गई होती और हत्याएं की गई होती तो क्या तब भी देश का मीडिया और तथाकथित एक्टिविस्ट यों ही चुप रह जाते? लोकतंत्र का यह कैसा रूप है जिसमें चुनी हुई सरकार ही अपने विरोधियों की हत्याएं? करा रही है फिर भी बंगाल में किसी को न असहिष्णुता दीखती है न हिंसा,न संविधान खतरे में है और न हीं किसी को डर लग रहा हैं। बंगाल में कम्युनिस्टों के शासन में राजनीतिक हत्याओं का जो खेला शुरू हुआ था, ममता राज में अभी भी वैसे ही चल रहा है। इस विनाशकारी खेल को शीघ्र ही समाप्त नहीं किया गया तो अन्य राज्यों में भी छोटे-छोटे राजनीतिक दल इस रक्तचरित्र को अपनाना आरम्भ कर सकते हैं। फिर राष्ट्रीय दलों का वहां जीवित रह पाना भी असंभव हो जाएगा। काग्रेस ने भले ही स्वयं समाप्त हो जाने की शर्त पर ममता के पक्ष में अपना वोटबैंक शिफ्ट हो जाने दिया हो किन्तु इस हिंसा के समर्थन से उसका भी कोई भला नहीं होने वाला। राज्य के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं तथा उससे केंद्र सरकार के भविष्य का मूल्याकन नहीं किया जा सकता। मोदी जी के लिए इसे संयोग कहें या सुअवसर कि देश के लगभग दर्जन भर से अधिक विपक्षी दलों को मिलाकर भी कोई ऐसा व्यक्ति सामने नहीं है जिसे मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। मीडिया जगत की इस समय की टिप्पणी यही है कि काग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर का संगठन तो है पर नेता नहीं है तथा उसके अन्य सहयोगी दलों के पास नेता हैं किन्तु राष्ट्रीय स्तर का संगठन नहीं है। किन्तु यह समय ऐसे विमर्श का नहीं है।
इस समय सबसे महत्वपूर्ण बात है बंगाल में होने वाली हत्याओं को तत्काल रोकना। क्या यह कम दुखद नहीं है कि स्वयं को मोदी विरोधी कहने वाले गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने भी इन हत्याओं पर शोक प्रकट नहीं किया और न ही निंदा की? लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। सरकार चाहे तृणमूल की हो या किसी भी अन्य दल की, राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखना उसका प्रथम कर्तव्य है। बंगाल में राज्य सरकार यदि अपने कर्तव्य से विमुख होती है तो उसके ऊपर संवैधानिक अंकुश लगाना ही पड़ेगा। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत के राष्ट्रपति महोदय को या न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर बंगाल में कानून व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिए। इसको लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आगे भी अपनी आवाज उठाती रहेगी।