विश्वव्यापी पहल और भावनात्मक संकल्प से सुधरेगी प्रकृति की सेहत

अथर्ववेद में कहा गया है माता भूमि पुत्रोहं पृथ्विया। अर्थात पृथ्वी मेरी माता और मैं उसका पुत्र हूं। आदिकाल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है। प्राणियों को जीवनदान देने वाली धरा का व्यापक अर्थ संपूर्ण प्रकृति से है। आदिकाल में जब मानव कंदराओं में रहता था।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Thu, 21 Oct 2021 12:34 PM (IST) Updated:Thu, 21 Oct 2021 05:57 PM (IST)
विश्वव्यापी पहल और भावनात्मक संकल्प से सुधरेगी प्रकृति की सेहत
विश्वव्यापी पहल और भावनात्मक संकल्प से सुधरेगी प्रकृति की सेहत

हल्‍द्वानी : अथर्ववेद में कहा गया है माता भूमि: पुत्रोहं पृथ्विया:। अर्थात पृथ्वी मेरी माता और मैं उसका पुत्र हूं। आदिकाल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है। प्राणियों को जीवनदान देने वाली धरा का व्यापक अर्थ संपूर्ण प्रकृति से है। आदिकाल में जब मानव कंदराओं में रहता था। तब वह अपनी जरूरतों के लिए पूर्णतया प्रकृति पर निर्भर था। मानव ने प्रकृति की सत्ता को आत्मसात करते हुए प्रकृति व उसके अन्य अवयवों को अपनी आस्था का केंद्र बनाया। वृक्षों, नदियों, पशु-पक्षियों को विशेष महत्व दिया। गुरुकुलों की शिक्षा में प्रकृति यानी पर्यावरण संरक्षण को व्यावहारिक रूप दिया गया। गुरुकुलों से शिक्षा प्राप्त कर निकलने वाला विद्यार्थी देश-समाज के साथ प्रकृति संरक्षण के कर्तव्य से भली-भांति परिचित था।

कालांतर में विकास की चकाचौंध में डूबा मानव प्रकृति पर अपना एकाधिकार मान बैठा। दुर्भाग्यवश उसने स्वयं को धरती का स्वामी व प्रकृति व अन्य प्राणियों को अपना सेवक मानने का अहम पाल लिया। विकास के नाम पर वनों का दोहन किया जा रहा। मनुष्य की लालसा के परिणाम स्वरूप कई नदियों का अस्तित्व संकट में है। विकसित देशों के महाशक्ति बनने के दिवास्वप्न के कारण विश्व में एक होड़ मची है। जिसमें पर्यावरण संरक्षण को ताक पर रखकर अंधा-धुंध उत्पादन हो, हथियारों की होड़ या फिर परमाणु परीक्षण। इन सभी का दुष्परिणाम प्रकृति को ही भोगना पड़ रहा है। मनुष्य की विवेक रहित विकास की दौड़ का ही दुष्परिणाम वन्यजीवों, जलचरों व पक्षियों को भुगतना पड़ रहा है। इनकी अनेक प्रजातियां आज विलुप्त हो गई हैं या फिर विलुप्त होने की कगार पर हैं।

पृथ्वी पर मंडराते प्रदूषण के संकट से आज भारत सहित अनेक देश जिनकी सीमाएं हिमालय से जुड़ी हैं वे भी अछूते नहीं हैं। भारत, नेपाल, पाकिस्तान, चीन, भूटान तक फैला हिमालय जिसे यतिवरा अर्थात समाधि में लीन योगी कहा जाता था। वो हिमालय जो अपने विराट स्वरूप, अपनी चिर समाधि, अपनी चिर शांति से मानव मन की तामसिकता को धोकर नव विचारों का सृजनकर्ता था। वो हिमालय जो जीवनदायिनी नदियों का उद्गम स्थल व जैव विविधता का भंडार था। वही हिमालय आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मानव को पुकार रहा है। विज्ञानियों के अनुसार पिछले 20 वर्षों में हिमालय सबसे अधिक प्रभावित हुआ है।

ग्लेशियर का पिघलना, केदारघाटी की भीषण त्रासदी, नेपाल का भूकंप, कश्मीर की बाढ़ हो या फिर मौसम चक्र का परिवर्तन आदि सभी के लिए हम ही दोषी हैं।

भारत में वर्षों पहले अशिक्षित कहीं जाने वाली, अभावों से जूझने वाली पहाड़ की महिलाओं ने गौरा देवी बनकर चिपको आंदोलन के माध्यम से जिस जीवटता का परिचय देते हुए वनों को बचाया। समाज में आज फिर से उसी जीवटता की जरूरत है। हमारे विद्यालयों में आज पर्यावरण संरक्षण को व्यावहारिक रूप से अपनाने की आवश्यकता है। आज आवश्यकता है चांदनी रात में कुछ समय घरों की बिजली बंद कर टिमटिमाते तारों से बातें करने की। आवश्यकता है हर त्योहार को प्राकृतिक रूप से मनाने की।

पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यकता है चमोली में 1994 से चलाए जा रहे भावनात्मक जन आंदोलन मैती की। जिसमें मायके से विदा होती बेटी विवाह के अवसर पर एक पौधा लगाती है और मायके वालों से पौधे के संरक्षण के साथ समय-समय पर यथा सामथ्र्य पर्यावरण संरक्षण का वचन मांगती है। प्रकृति के अगणित ऋणों को चुकाने के लिए आज विश्व संकल्प की आवश्यकता है। साथ में जरूरी है अपने-अपने स्तर पर छोटे-छोटे संकल्पों व प्रयासों से प्रकृति को बचाने की। ताकि अपनी भावी पीढ़ी को संपन्न प्राकृतिक धरोहर व खुशहाल जीवन दे सकें।

- पीएस अधिकारी, प्रधानाचार्य, शिवालिक इंटरनेशनल स्कूल हल्द्वानी

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