पहाड़ के गांव में बैलों की तरह हाड़-तोड़ काम करती हैं महिलाएं, प्रदेश के विकास पर प्रश्नचिह्न
मुख्यालय से लगभग 85 किमी दूर दक्षिणी छोर पर जिले का अंतिम गांव गोगिना सरकार के दावों को आइना दिखा रहा है। गांव विकास की मुख्यधारा से कटा हुआ है। महिला सशक्तिकरण सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से अछूता है।
चंद्रशेखर द्विवेदी, बागेश्वर। मुंशी प्रेमचंद के दो बैलों की कथा आपने सुनी होगी, नही तो मदर इंडिया फिल्म में राधा की भूमिका जरूर देखी होगी। आजादी से पहले लेखक ने दो बैलों के जरिए अंग्रेजी हुकूमत के दौरान के हालात और छठे दशक में निर्देशक ने बड़े पर्दे पर गरीब, महिलाओं का दर्द फिल्मांकित किया था। 21वीं सदी में भी ऐसे ही हालात बरकरार है। जिले के दूरस्थ गांव गोगिना में महिलाएं बैलों की भूमिका में हैं और कष्टमय जीवन जीने को मजबूर हैं।
सरकार भले ही विकास के लाख दावे कर ले लेकिन जमीनी हकीकत कहां छुपाए छुपती हैं। राज्य बनने के बाद शासकों ने पहाड़ की अर्थव्यवस्था की रीढ़, महिलाओं के सिर से बोझ कम करने का वादा किया था। कमोबेश आज हालात उससे भी बदतर हैं। मुख्यालय से लगभग 85 किमी दूर दक्षिणी छोर पर जिले का अंतिम गांव गोगिना सरकार के दावों को आइना दिखा रहा है। गांव विकास की मुख्यधारा से कटा हुआ है। महिला सशक्तिकरण, सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से अछूता है। यहां महिलाएं और पुरुष आज भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत कर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। गरीबी के कारण ना तो यहां ग्रामीण मवेशी रख पाते है ना ही सरकार की अनुदान वाली योजनाओं का लाभ ले पाते है। खेताें में जुताई के लिए महिलाएं बैलों की जगह पर काम करती हुई नजर आती है। हर घर में लगभग ऐसा आसानी से देखा जा सकता है। पहाड़ सी जिंदगी जीना अब यह महिलाएं सीख चुकी है।
गोगिना की ग्राम प्रधान शीतला रौतेला का कहना है कि सरकार की योजनाएं गांव तक पहुंच ही नही पाती है। गांव इतनी दूरी पर है कि सरकारी नुमाइंदा भी यहां नही पहुंचता है। महिलाओं को इस कठोर श्रम की आदत कहो या मजबूरी बस हो गई है।
मुख्य कृषि अधिकारी वीपी मौर्या का कहना है कि सरकार कई योजनाएं चला रही है। गरीबों को अनुदान पर भी कृषि यंत्र आदि दे रही है। अगर फिर भी ऐसा हो रहा है तो निरीक्षण कराया जाएगा। आवश्यक कार्रवाई होगी।
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