हर फूल से आता है फल, पहाड़ से लेकर मैदान तक मुनाफे का सौदा साबित हो रहा आड़ू उत्पादन

Jagran Special पहाड़ से लेकर मैदानी इलाके में पैदा होने वाले आड़ू में फूल अन्य फलों की तरह झड़ते नहीं है अर्थात सौ फीसद उत्पादन निश्चित है। बलुई दोमट में आसानी से होने वाली फसल से दो से ढाई लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की कमाई की जा सकती है।

By Prashant MishraEdited By: Publish:Tue, 20 Apr 2021 03:08 PM (IST) Updated:Tue, 20 Apr 2021 03:08 PM (IST)
हर फूल से आता है फल, पहाड़ से लेकर मैदान तक मुनाफे का सौदा साबित हो रहा आड़ू उत्पादन
किसान कम लागत में बेहतर मुनाफा कमा रहे हैं।

हल्द्वानी, मनीस पांडेय। तराई, भाबर, पर्वतीय व घाटी क्षेत्रों में आसानी से तैयार वाला आडू दो से तीन साल में ही फल देने लगता है। यह उत्तराखंड के किसानों के लिए मुफीद सौदा साबित हो रहा है। इसकी खेती पर्वतीय, घाटी व मैदानी क्षेत्रों में बड़े आराम से की जा सकती है। उत्तराखंड के अतिरिक्त पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू, हिमाचल प्रदेश आदि में भी इसकी बागवानी की जा रही है, जिसमें किसान कम लागत में बेहतर मुनाफा कमा रहे हैं।

नैनीताल जिले के रामनगर, कोटाबाग आदि मैदानी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर आड़ू का उत्पादन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्रों में मुक्तेश्वर, रामगढ़ गरमपानी आदि क्षेत्रों में आड़ू का उत्पादन हो रहा है, जबकि अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में भी आड़ू की बागवानी की जा रही है, जिसे उत्तराखंड से देश के विभिन्न भागों में बेचा जा रहा है। गोविंद बल्लभ पंत पंतनगर विश्वविद्यालय की ओर से आड़ू उत्पादन के लिए विशेष रूप से कार्य किया जा रहा है, जिसमें प्रोफ़ेसर हाॅर्टिकल्चर डाॅ. अशोक कुमार सिंह व उनकी टीम इस कार्य के लिए नित नए प्रयोग कर रही है।

आड़ू रोपण की आवश्यक तैयारियां

आडू रोपण का कार्य मध्य पर्वतीय, घाटी क्षेत्र भाबर व मैदानी इलाकों में किया जा सकता है। इसके लिए शीतोष्ण व उपोष्ण जलवायु बेहतर है। पौधारोपण के लिए बलुई और दोमट मिट्टी उपयुक्त है। मिट्टी में पीएच मान 6.5 से 7.5 तक होना चाहिए। प्रोफेसर डॉ अशोक कुमार सिंह ने बताया कि जिस स्थान पर पौधे का रोपण किया जा रहा है, वहां पर जल निकासी की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। अन्यथा पौधे सूख सकते हैं।

आड़ू की प्रजातियां :

मैदानी क्षेत्रों के लिए

अर्ली ग्रैंड, फ्लोरिडा प्रिंस, शाने पंजाब, सहारनपुर प्रभात, प्रताप, फ्लोरिडा गोल्ड आदि प्रमुख प्रजातियां हैं।

बर्फीले क्षेत्रों के लिए प्रजातियां

पर्वतीय भागों में बर्फीले क्षेत्रों के लिए भी आड़ू की प्रजातियां हैं, जिसमें मुख्य रूप से एल्बर्टा, जुलाई अल्बर्टा, एलेग्जेंडर सन हेवेन, स्टार्क रेड गोल्ड आदि मुख्य हैं।

जनवरी में करें पौधरोपण

आड़ू की बागवानी के लिए पौधों का रोपण जनवरी माह से लेकर फरवरी के पहले सप्ताह तक सर्वश्रेष्ठ समय होता है। बर्फीले क्षेत्रों में बर्फ पिघलने के बाद मार्च माह तक रोपण का कार्य करना चाहिए। पौधों के बीच में पांच से छह मीटर का गैप होना आवश्यक है, जिसमें अधिक उपजाऊ क्षेत्र में छह मीटर का व कम उपजाऊ क्षेत्र में पांच मीटर का अंतर होना चाहिए। आड़ू के पौधे सामान्य रूप से बाजार में व उद्यान विभाग की ओर से उपलब्ध कराए जाते हैं। इसके अतिरिक्त गोविंद बल्लभ पंत पंतनगर विश्वविद्यालय के उद्यान अनुसंधान केंद्र पत्थरचट्टा में भी यह पौधे उपलब्ध हैं। जहां 75 रुपये प्रति पौधे के अनुसार इसकी खरीद की जा सकती है।

सभी फूलों में आते हैं फल

आड़ू की बागवानी में सबसे खास बात यह है कि पेड़ में जितने फूल लगते हैं, उन सभी में फल आते हैं। विभागाध्यक्ष डॉ. दिनेश चंद्र ने बताया कि आम, लीची, सेब आदि फलों में लगने वाले फूल झड़ जाते हैं, जबकि आड़ू में शत-प्रतिशत फल लगते हैं।

पंतनगर विश्वविद्यालय में चार एकड़ में बागवानी

गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर में चार एकड़ क्षेत्र में आड़ू का उत्पादन किया जा रहा है, जिसमें वर्ष 2008 से ही पौधों का रोपण किया गया है। उद्यान विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ दिनेश चंद्र ढिमरी ने बताया कि फ्लोरिडा प्रिंस किस्म का आड़ू पककर तैयार हो गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रजातियों का रोपण विश्वविद्यालय परिसर में किया गया है, जिसमें नित नए शोध कार्य किए जा रहे हैं। विभाग की सहायक प्रोफेसर डॉ श्वेता उनियाल, राजेंद्र कुमार, शुभम जग्गा, अफगानिस्तान के मुस्तफा सुल्तानी आदि शोध कर रहे हैं।

ढाई लाख रुपए प्रति हेक्टेयर तक आय

आड़ू के पौधरोपण के बाद दो साल में ही फल आने लगते हैं, जबकि बेहतर उत्पादन के लिए दूसरे वर्ष फल तोड़ देने चाहिए। तीसरे साल से ही फल लेना चाहिए, ताकि पौधों को विकास के लिए उचित समय मिल सके। अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर जून तक इसके फल उपलब्ध रहते हैं। जबकि शरबती प्रजाति का फल जुलाई में पकता है। इसका फल 70 से 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक बाजार में बिकता है, जिसमें किसान दो से ढाई लाख रुपए प्रति हेक्टेयर तक आय कमा सकते हैं।

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