World Heritage Day 2021: जानिए उत्तराखंड की पांच ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में

World Heritage Day 2021 वर्षों से इतिहास को समेटे उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहरें दुनियाभर में विख्यात हैं। इनका दीदार करने के लिए बड़ी तादाद में हर साल सैलानी पहुंचते हैं।चलिए पांच ऐसी ही धरोहरों के बारे में बताते हैं जो व‍िख्‍यात हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Sun, 18 Apr 2021 11:41 AM (IST) Updated:Sun, 18 Apr 2021 11:41 AM (IST)
World Heritage Day 2021: जानिए उत्तराखंड की पांच ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में
World Heritage Day 2021: जानिए उत्तराखंड की पांच ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में

नैनीताल जागरण संवाददाता : World Heritage Day 2021:  वर्षों से इतिहास को समेटे उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहरें दुनियाभर में विख्यात हैं। इन धराहरों का दीदार करने के लिए बड़ी तादाद में हर साल सैलानी यहां पहुंचते हैं। विश्व धरोहर दिवस पर चलिए हम आपको पांच ऐसी ही धरोहरों के बारे में बताते हैं जो अपने इतिहास और निर्णाण की अनोखी कला शैली के कारण जानी जाती हैं। पिथौरागढ़ का लंदन फोर्ट, नैनीताल का राजभवन, अल्मोड़ा का कटारमल सूर्य मंदिर, अल्मोड़ा का जागेश्वर मंदिर और बागेश्वर का बागनाथ मंदिर कुमाऊं की अनूठी धरोहरों में एक हैं। 

लंदन फोर्ट, पिथौरागढ़ 

पिथौरागढ़ की धरोहर लंदन फोर्ट इतिहास समेटे हुए है। इसे बाऊलकीगढ़ किले के नाम से जाना जाता था। किले को वर्ष 1791 में गोरखाओं ने अपनी सुरक्षा के लिए बनाया था। ये किला पितरौटा गांव की चोटी पर स्थित है। इस किले में गोरखा सैनिक और सामंत ठहरते थे। किले में एक तहखाना भी बनाया गया था। इसमें कीमती सामना और असलहे रखे जाते थे। किले के अंदर कुछ गुप्त दरवाजे और रास्ते भी थे। इनका प्रयोग आपातकाल में किया जाता था। किला चारों तरफ से अभेद्य परकोटे नुमा सुरक्षा दीवार से घिरा हुआ है। इसके अंदर बंदूकें चलाने के लिए 152 छिद्र मचान बनाए गए हैं। पूरे किले की दीवार की लंबाई 88.5 मीटर और चौड़ाई 40 मीटर है और ऊंचाई आठ फिट, नौ इंच है। किले की मोटी दीवारों की चौड़ाई पांच फिट चार इंच है। इसकी दीवारें मोटे कठुवा पत्थर की हैं और चिनाई चूने और गारे से की गई है। पर्यटन विभाग ने 2013 से संचालित पर्यटन अवसंरचना विकास निवेश कार्यक्रम के तहत किले के विकास की योजना तैयार की थी। राज्य का पर्यटन विभाग एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की वित्तीय मदद से किले का जीर्णोद्धार 2015 से चल रहा है। किले के अंदर एक कुंआ था जिसपर अब पीपल का पेड़ हैं। किले में प्रवेश के लिए दो दरवाजे हैं। अंदर छोटे बड़े मिला कर 15 कमरे हैं। किले के बिल्कुल पीछे दो बंदी गृह व पुस्तकालय भी है। सुगौली की संधि के बाद 1815 में अंग्रेजों ने इस किले का नाम लंदन फोर्ट कर दिया था और इसे अपना मुख्यालय बनाया था। पिथौरागढ़ में किले के अंदर एक शिलापट्ट लगा है। इसमें प्रथम विश्व यु्द्ध में प्राण न्योछावर करने वाले सैनिकों का उल्लेख किया गया है। 

राजभवन, नैनीताल 

नैनीताल के राजभव को उत्तराखंड के ऐतिहासिक विरासत का दर्जा मिला हुआ है। इंग्लैंड के बकिंघम पैलेस की तरह नैनीताल में चर्चित गौथिक शैली में बना ऐतिहासिक राजभवन की नींव 27 अप्रैल 1897 को रखी गई थी। अंग्रेजी के ई-आकार में बनी इस इमारत के निर्माण में सर एंथोनी पैट्रिक मैकडोनल्ड की खास भूमिका रही। 220 एकड़ राजभवन क्षेत्र में 160 एकड़ क्षेत्र जंगल है, जबकि 1975 में 75 एकड़ क्षेत्रफल में गोल्फ मैदान बनाया गया। 1994 में राजभवन की सुंदरता को देखते हुए आम लोगों के लिए भी खोल दिया गया। यह भवन 1900 में बनकर तैयार हुआ। मुंबई में बने एतिहासिक छत्रपति शिवाजी टर्मिनल की डिजाइन करने वाले चर्चित डिजाइनर फेड्रिक विलियम स्टीवन ने ही नैनीताल राजभवन का डिजाइन तैयार किया था। आजादी के बाद 1950 में देश का पहला वन महोत्सव नैनीताल राजभवन में ही आयोजित किया। तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री केएम मुंशी का लगाया बांज का पेड़ आज भी महोत्सव की याद ताजा कर रहा है।

कटारमल सूर्य मन्दिर, अल्मोड़ा  

अल्मोड जिले में स्थित कटारमल सूर्य मन्दिर उत्तराखंड की ऐतिहासिक विरासत है। कहते हैं इसका निर्माण कत्यूरी राजवंश के तत्कालीन शासक कटारमल ने छठीं से नवीं शताब्दी में कराया था। यह कुमांऊ के सबसे ऊंचे मन्दिरों की सूची में भी शामिल है। इस मंदिर का स्थापत्य और शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर को एक ऊंचे वर्गाकार चबूतरे पर बनाया गया है। आज भी इसके खंडित हो चुके ऊंचे शिखर को देखकर इसकी विशालता व वैभव का स्पष्ट अनुमान होता है। मंिदर पूर्वाभिमुखी है और अधेली सुनार नामक गांव में स्थित है। मुख्य मन्दिर के आस-पास 45 छोटे-बड़े मन्दिरों का समूह भी बेजोड़ है। मंदिर के गर्भगृह का प्रवेश द्वार उच्‍चकोटि की काष्ठ कला से बना था, जो अब कुछ अन्य अवशेषों के साथ नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवा दिया गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग में असुरों के अत्याचार बचने के लिए ऋषि-मुनियों ने सूर्य देव की स्तुति की थी। जिससे प्रसन्न होकर उन्‍होंने अपने दिव्य तेज को एक वटशिला में स्थापित कर दिया। इसी वटशिला पर कत्यूरी राजवंश के शासक कटारमल ने बड़ादित्य नामक तीर्थ स्थान के रूप में इस सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया, जो अब कटारमल सूर्य मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।

जागेश्वर मंदिर, अल्मोडा 

जागेश्वर मंदिर समूह का निर्माण कत्यूरी राजाओं के शासनकाल में सातवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य हुआ है। कत्यूरी शासक खुद को परम महेश्वर कहते थे और वह खुद को शिव के परम भक्त मानते थे। मान्यताओं के मुताबिक जागेश्वर में स्थापित शिवलिंग बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक है। यह भी मान्यता है कि जगद्गुरुआदि शंकराचार्य ने इस स्थान का भ्रमण किया और इस मंदिर की मान्यता को पुनर्स्थापित किया। जागेश्वर मंदिर नागर शैली का है। यहां स्थापित मंदिरों की विशेषता यह है कि इनके शिखर में लकड़ी का बिजौरा (छत्र) बना है। जागनाथ मंदिर में भैरव को द्वारपाल के रूप में अंकित किया गया है। जागेश्वर लकुलीश संप्रदाय का भी प्रमुख केंद्र रहा। जागेश्वर मंदिर समूह के अंतर्गत शिव, महामृत्युंजय, लकुलीश, केदारेश्वर, बालेश्वर, पुस्टिदेवी सहित छोटे बड़े 124 मंदिर हैं।

बागनाथ मंदिर, बागेश्वर 

बागेश्वर का बागनाथ मंदिर धर्म के साथ पुरातात्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। नगर को मार्केंडेय ऋषि की तपोभूमि के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव के बाघ रूप में यहां निवास करने से इसे व्याघ्रेश्वर नाम से जाना गया। जो बाद में बागेश्वर हो गया। बहुत पहले भगवान शिव के इसी रूप का प्रतीक एक देवालय यहाँ पर स्थापित किया गया था। जहां पर बाद में भव्य मंदिर बना। जो बागनाथ के नाम से जाना जाता है। नगर शैली के वर्तमान बागनाथ मंदिर को चंद्र वंशी राजा लक्ष्मी चंद ने सन 1602 में बनाया था। मंदिर के करीब बाणेश्वर मंदिर वास्तु कला की दृष्टि से बागनाथ मंदिर के समकालीन लगता है। मंदिर के समीप ही भैरवनाथ का मंदिर बना है। बाबा काल भैरव मंदिर में द्वारपाल रूप में निवास करते हैं। बागनाथ मंदिर में सातवीं से सोलहवीं शताब्दी ईसवी तक की कई महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ हैं। इनमें उमा-महेश्वर, पार्वती, महिषासुर मर्दिनी, एक मुख एवं चतुमुर्खी शिव लिंग, त्रिमुखी शिव, गणेश, बिष्णु, सूर्य और सप्त माताका और दशावतार पट आदि की प्रतिमाएँ हैं। जो इस बात की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं कि सातवीं शताब्दी से कत्यूर काल में इस स्थान पर अत्यंत भव्य मंदिर रहा होगा। यहां पर मकर संक्रांति और शिवरात्रि पर भव्य मेला लगता है।

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