ठंड बीती तब वन निगम को आई गौला मजदूरों की याद, मजदूर घर जाने लगे तो पकड़ाने लगे कंबल
सरकार की झोली में भरने वाली गौला के मजदूरों को लेकर वन निगम कितना गंभीर है। इसका उदाहरण चार महीने की देरी से बंट रहे कंबल है। अलग-अलग राज्यों से गौला में काम करने आए मजदूरों के साथ यह मजाक कोई पहली बार नहीं हुआ।
जागरण संवाददाता, हल्द्वानी : हर साल करोड़ों रुपये सरकार की झोली में भरने वाली गौला के मजदूरों को लेकर वन निगम कितना गंभीर है। इसका उदाहरण चार महीने की देरी से बंट रहे कंबल है। बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश के अलग-अलग कोनों से गौला में काम करने आए मजदूरों के साथ यह मजाक कोई पहली बार नहीं हुआ। वहीं, वन निगम खुद मान रहा है कि कई श्रमिक अपने घरों को लौट चुके हैं।
गौला को कुमाऊं की लाइफलाइन कहा जाता है। शीशमहल से लेकर शांतिपुरी तक नवंबर से मई यानी सात महीने तक उपखनिज की निकासी की जाती है। हजारों लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर गौला से रोजगार चलता है। वहीं, गौला में हर साल हजारों की संख्या में बाहरी राज्यों से मजदूर पहुंचते हैं। हकीकत बात यह है कि जब तक श्रमिक पूरी संख्या में नहीं आते। खनन सत्र ढंग से चल ही नहीं पाता।
श्रमिकों सुविधाएं मुहैया करवाना वन निगम का काम होता है। जलौनी लकड़ी, मेडिकल कैंप, कंबल, ग्लब्स, जूते व पानी की बोतल देना अनिवार्य है। इसके लिए बकायदा पहले मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाता है। लेकिन इस बार निगम ने सिर्फ जलौनी लकड़ी ही समय से उपलब्ध करवाई। पूरे जाड़े श्रमिक वन निगम के कंबलों का इंतजार करते रहे। लेकिन प्रस्ताव व टेंडर का बहाना कर मामले को लटकाया गया। अब जाकर वन निगम कंबल बांट रहा है। छह हजार में से 2500 लोगों को अभी कंबल मिल पाए हैं। बड़ी संख्या में लोग अपने घर जा चुके हैं।
544 रुपये का एक कंबल
कंबल वितरण में देरी को लेकर वन निगम के डीएलएम से सवाल पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि गांधी आश्रम से 544 रुपये प्रति पीस के हिसाब से बेहतर क्वालिटी का कंबल खरीदा गया है। यह तो दस साल चलेगा। वहीं, पानी की बोतल, जूते, मास्क व ग्लब्स अब तक नहीं मिले। निगम खुद असमंजस में है कि यह कब बंटेंगे।
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