Personality of Indira Hridayesh : हृदयेश का हरीश से मतभेद था, मनभेद नहीं

Personality of Indira Hridayesh उत्तराखंड में राष्ट्रपति लग गया। प्रदेश कांग्रेस के लिए यह एक शर्मनाक पल था। इस समय हरीश रावत के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ी थीं तो बस इंदिरा हृदयेश। उनकी लाख बनती नहीं थी पर उन्होंने हरदा या पार्टी का साथ कभी नहीं छोड़ा।

By Prashant MishraEdited By: Publish:Sun, 13 Jun 2021 03:55 PM (IST) Updated:Sun, 13 Jun 2021 03:55 PM (IST)
Personality of Indira Hridayesh : हृदयेश का हरीश से मतभेद था, मनभेद नहीं
कभी भी इंदिरा ने ऐसी बात नहीं की जो पार्टी लाइन से हटकर हो या जिससे असहज होना पड़ा हो।

जागरण संवाददाता, हल्द्वानी : Personality of Indira Hridayesh : राजनीति में कहा जाता है कि कोई किसी का स्थायी दोस्त होता है न दुश्मन। इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद के मामले हों या बंगाल में मुकुल रॉय का टीएमसी से भाजपा व वापस टीएमसी में आना, राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है।

इन हालातों पर नजर दौड़ाएं तो उत्तराखंड की राजनीति में इंदिरा हृदयेश एक एेसी शख्शियत थीं जो लाख मतभेदों के बावजूद उनकी निष्ठा पार्टी से नहीं डिगी। उनका पार्टी के कद्दावर नेता हरीश रावत से मतभेद जगजाहिर रहा। आपस में राजनैतिक तीर चलते रहते थे। यहां तक कि जीवन के अंतिम दिन से पूर्व भी उन्होंने सीएम चेहरे की घोषणा को लेकर एक-दूसरे पर हमलावर रहे। पर कभी भी इंदिरा ने ऐसी बात नहीं की जो पार्टी लाइन से हटकर हो या जिससे पार्टी को असहज होना पड़ा हो।

उनकी पार्टी की निष्ठा एक उदाहरण से जाहिर होता है कि वर्ष 2016 में प्रदेश कांग्रेस में कई प्रमुख नामचीन नेताओं ने बगावत कर दी। जिसमें से हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल यहां तक कि पूर्व सीएम रहे विजय बहुगुणा भाजपा से जा मिले। इसके साथ ही इनके सपंर्क में रहे 10 विधायकों ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। हालात इतने खराब हो गए कि इसके बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति लग गया। प्रदेश कांग्रेस के लिए यह एक शर्मनाक पल था। इस समय हरीश रावत के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ी थीं तो बस इंदिरा हृदयेश। उनकी लाख बनती नहीं थी पर उन्होंने हरदा या पार्टी का साथ कभी नहीं छोड़ा।

देहरादून के बाद दूसरा सबसे बड़े नगर निगम चुनाव में भाजपा के बड़े नेता जहां जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला के पक्ष में प्रचार-प्रसार में जुटे थे। वहीं उनके बेटे सुमित के पक्ष में पार्टी का कोई नेता नहीं आया। वह अकेली ही मोर्चा सम्भाले रहीं। बेटे के चुनाव हारने के बाद भी उन्होंने इतना आत्मनियंत्रण रखा कि कभी भी नेताओं या पार्टी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं आने दी। एेसा था उनका व्यक्तिव। उनका कहना था कि राजनीति में अापसी संबंध प्रगाढ़ होने चाहिए, हां विचारधारा अलग हो सकती है। उनका मानना था कि मनमुटाव के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं है।

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