1985 में नौकुचियाताल झील से जंगल में पानी डालता था हेलीकॉप्टर

जंगलों में बढ़ रही आग के कारण वन विभाग पर्यावरणविद् से लेकर आम लोग भी चिंता में आ चुके हैं। मौसम का साथ नहीं मिलने से चुनौती दोगुनी हो चुकी है। हाल में कुमाऊं के जंगलों की आग बुझाने के लिए तीन दिन वायुसेना का हेलीकॉप्टर हल्द्वानी में खड़ा रहा।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Wed, 14 Apr 2021 10:27 AM (IST) Updated:Wed, 14 Apr 2021 10:27 AM (IST)
1985 में नौकुचियाताल झील से जंगल में पानी डालता था हेलीकॉप्टर
1985 में नौकुचियाताल झील से जंगल में पानी डालता था हेलीकॉप्टर

गोविंद बिष्ट, हल्द्वानी : जंगलों में लगातार बढ़ रही आग के कारण वन विभाग, पर्यावरणविद् से लेकर आम लोग भी चिंता में आ चुके हैं। मौसम का साथ नहीं मिलने से चुनौती दोगुनी हो चुकी है। हाल में कुमाऊं के जंगलों की आग बुझाने के लिए तीन दिन वायुसेना का हेलीकॉप्टर हल्द्वानी में खड़ा रहा। मगर विजिबिलिटी के चक्कर में कोई मदद नहीं मिली। अगर थोड़ा अतीत में जाए तो 1985 से लेकर 85 के बीच कुमाऊं के बड़े हिस्से में विकसित देशों की तर्ज पर आग पर काबू पाने को प्रोजेक्ट शुरू हुआ था। तब पांच साल तक एक हेलीकॉप्टर और एक चार सीटर प्लेन उपलब्ध कराने के साथ फायर फाइटिंग के लिए पूरा सिस्टम तैयार किया गया था। नौकुचियाताल झील से पानी भर हेलीकॉप्टर से सुलगते जंगलों पर बौछार मारी जाती थी। 

1984 के आसपास यूनाइटेड नेशन के साथ हुए समझौते के तहत महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश में मार्डन फॉरेस्ट फायर प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। जिसका उद्देश्य विकसित देशों की तर्ज पर जंगल की आग पर काबू पाना था। इससे पहले रेंज स्तर के अधिकारियों को अमेरिका के कैलिफोर्निया में ट्रेनिंग के लिए भी भेजा गया था। महाराष्ट्र के चंद्रपुर व उत्तर प्रदेश के हल्द्वानी (अब उत्तराखंड) में दो हेडक्वाटर बनाए गए थे। रामपुर रोड पर एचएन स्कूल के सामने जिस बिल्डिंग में अब वन पंचायत एवं संयुक्त वन प्रबंधन के संरक्षक का कार्यालय है। वहां तब फायर फाइटिंग प्रोजेक्ट का कार्यालय हुआ करता था। हेलीकॉप्टर, प्लेन से लेकर अन्य सभी संसाधन यूनाइटेड नेशन डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट के माध्यम से मिले थे। हालांकि, शर्त थी कि इनका इस्तेमाल सिर्फ जंगल की आग बुझाने में किया जाएगा। 1989 यानी पांच साल तक हेलीकॉप्टर व प्लेन वन विभाग के पास रहे। उसके बाद समझौते की अवधि पूरी होने पर इन्हें लौटा दिया गया।

तब इन चार तरीकों का इस्तेमाल

वॉच टावर से जानकारी : जंगल में आग पता लगाने के लिए बड़े-बड़े वॉच टॉवर बनाए गए। पहाड़ पर 33 फीट व मैदानी जंगल में 90 फीट ऊंचे टॉवर लगे थे। जिनके जरिये वनकर्मी आग का पता लगाते थे। कंपास यानी दिशा यंत्र से सटीक लोकेशन ली जाती थी। 

जापानी वायरलैस से रिर्पोटिंग 

आग की जानकारी को आगे पहुंचाने के लिए उस दौर में सबसे आधुनिक माने जाने वाले जापानी कंपनी आइकोन के वायरलैस सेट स्टॉफ को दिए गए थे। चाइना पीक में रिपीटर स्टेशन बनाया गया था। जहां से सूचना आदान-प्रदान का पूरा सिस्टम संचालित होता था। 

हर गाड़ी का कोड 

उस दौर में फायर कंट्रोल में लगी हर गाड़ी का एक कोड होता था। जिससे उस टीम की पूरी जानकारी मिलती थी। रिपीटर स्टेशन से जिस गाड़ी को कमांड होती थी। वह टीम मौके पर पहुंच काम पूरा होने पर पूरी रिपोर्ट देती थी।

हर दिन ब्राडकास्ट

इस प्रोजेक्ट के तहत प्रतिदिन फायर डेंजरर्स रेटिंग का ब्राडकास्ट किया जाता था। आग लगने की संभावना और उसके दायरे में आने वाले इलाके की जानकारी देने के लिए पूरा सिस्टम तैयार किया गया था। इसके बाद लोगों तक यह जानकारी पहुंचाई जाती थी।

इन जंगलों के लिए प्रोजेक्ट

वर्तमान वेस्टर्न सर्किल का कालागढ़ इलाका छोड़ पूरा जंगल इस प्रोजेक्ट में शामिल था। इसके अलावा नैनीताल डिवीजन यानी नैनीताल, भीमताल के आसपास का जंगल व पीलीभीत डिवीजन इस प्रोजेक्ट का हिस्सा थी।

हेलीकॉप्टर सिस्टम कारगर नहीं

रिटायर प्रमुख वन संरक्षक व 1984 में फायर फाइटर प्रोजेक्ट में उत्तर प्रदेश के हेड रहे आइडी पांडे के मुताबिक यूनडीपी प्रोजेक्ट के तहत मिले सभी संसाधन बेहद कारगर साबित हुए। खासकर सूचना प्रचारित करने का साधन व हैंड टूल्स। लेकिन हेलीकॉप्टर के जरिये जंगल में आग बुझाने का तरीका फायदेमंद नहीं होता। रिटायर पीसीसीएफ के अनुसार ग्रामीणों का सहयोग और जमीनी स्टाफ को संसाधन मुहैया करा आग पर कंट्रोल करना ज्यादा आसान रहेगा। पांडे के मुताबिक नौकुचियाताल में हेलीपेड बनाया गया था। वहीं, खाली समय पर पंतनगर एयरपोर्ट में हेलीकॉप्टर व प्लेन को खड़ा किया जाता था। 

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