प्रकृति और अध्यात्म के अनूठे संगम का नाम है जागेश्वरधाम, सावन में उमड़ती है भक्‍तों की भीड़

अल्मोड़ा से 35 किमी दूर देवदार की सुरम्य वादियों में स्थित जागेश्वरधाम द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक माना जाता है। देश के ही नहीं विदेशों से भी हजारों पर्यटक और श्रद्धालु प्रतिमाह यहां दर्शन करने को आते हैं। श्रावण के महीने में यहां एक माह का विशाल मेला लगता है।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Mon, 26 Jul 2021 10:20 AM (IST) Updated:Mon, 26 Jul 2021 05:35 PM (IST)
प्रकृति और अध्यात्म के अनूठे संगम का नाम है जागेश्वरधाम, सावन में उमड़ती है भक्‍तों की भीड़
प्रकृति और अध्यात्म के अनूठे संगम का नाम है जागेश्वरधाम, सावन में उमड़ती है भक्‍तों की भीड़

जागरण टीम, जागेश्वरधाम : अल्मोड़ा से 35 किमी दूर देवदार की सुरम्य वादियों में स्थित जागेश्वरधाम द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक माना जाता है। देश के ही नहीं विदेशों से भी हजारों पर्यटक और श्रद्धालु प्रतिमाह यहां दर्शन करने को आते हैं। श्रावण के महीने में यहां एक माह का विशाल मेला लगता है। कोरोना महामारी के चलते पिछले साल से श्रावणी मेले का आयोजन बंद किया गया है। अब श्रद्धालुओं को नियमानुसार दर्शन और रुद्राभिषेक करने के लिए पंजीकरण करना अनिवार्य किया गया है।

जागेश्वरधाम में पाषाण शैली के भव्य देवालयों का निर्माण कत्यूरी व चंद राजाओं ने करवाया था। यहां पर मंदिरों में बड़े- बड़े पत्थरों में पशु -पक्षियों व देवी देवताओं की अति सुंदर मूर्तियां उकेरी गई हैं। वास्तुशिल्प एवं आलेखन के क्रम में लकुलीश व सकुलीश सबसे प्राचीन मंदिर माने गये हैं। कालांतर में जागनाथ, महामृत्युंजय, कुबेर, पुष्टी देवी, नव दुर्गा, कालिका व दंडेश्वर मंदिरों का निर्माण माना जाता है। एक किमी क्षेत्र में सवा सौ से अधिक मंदिरों का समूह होना इस क्षेत्र की विशेषता है

जागनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी हेमंत भट्ट बताते हैं कि वैसे तो जागेश्वरधाम में कभी भी पूजा अर्चना की जा सकती है परंतु सावन माह और विशेषकर सोमवार के दिन पूजा अर्चना का महत्व विशेष माना गया है। जागेश्वरधाम में रुद्राभिषेक और पार्थिव पूजन का विशेष महत्व होने की वजह से देश- विदेश के अनेक श्रद्धालु अपनी सुविधानुसार पूरे वर्ष भर यहां आते रहते हैं।

मंदिर का इतिहास

जागेश्वर धाम के संबंध में स्कंध पुराण में वर्णन मिलता है। जागेश्वरधाम से दो किमी पश्चिम की ओर स्थित दंडेश्वर वन में ऋषि मुनियों ने शिव की तपस्या की। उसी काल में ऋषि पत्नियां कंदमूल फल लाने हेतु वन में गई जहां उन्हें शिवजी दंडी रूप में वस्त्र विहीन दिखाई दिए। शिव के नग्न रूप को देखकर ऋषि पत्नियां मूर्छित हो गई। ऋषियों ने अपनी पत्नियों की हालत देखकर दंडी रूप शिव पर पत्थर मारने शुरू कर दिए। शिव ने कहा कि मेरे लिंग की वजह से ही यह सब हुआ है मैं अपने लिंग को ही काट देता हूं। लिंग को काटकर दंडी रूप शिव अंतध्र्यान हो गए। तत्पश्चात कटा हुआ लिंग ज्वलंत रूप धारण कर ऋषि मुनियों के पीछे दौडऩे लगा। ऋषि मुनि तीनों लोकों में भागते गए। ब्रह्मा जी ने उन्हें शक्ति की उपासना करने को कहा। देवी की उपासना में समस्त ऋषियों ने यज्ञ किया। शक्ति में ही वह लिंग स्थापित हो पाया। जिस स्थान पर यह लिंग स्थापित हुआ उसी का नाम जागेश्वर पड़ा। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में नागेश ज्योतिर्लिंग माना गया है।

मंदिर की विशेषता

जागेश्वरधाम में नि:संतान स्त्रियां अगर रातभर अपने हाथों में प्रज्वलित दीपक धारण कर भोलेनाथ का व्रत रखती हैं तो उनकी मनोकामना पूर्ण होती है। इस धाम में पार्थिव बनाकर भगवान की शिव की पूजा करने से भी संतान की प्राप्ति होती है ऐसी आदि मान्यता है। माना गया है कि सर्वप्रथम शिवार्चन और पार्थिव पूजन जागेश्वरधाम में किया जाता है तत्पश्चात अपने घरों में भी पार्थिव (लघु शिवलिंग ) पूजन और शिवार्चन किया जा सकता है। जागेश्वरधाम में सावन माह में शिवार्चन, पार्थिव पूजन और रूद्राभिषेक का महत्व सर्वाधिक माना गया है।

महामारी से बचाव के लिए भी करते हैं पार्थिव पूजन

इस बार यह दूसरा सावन है जब जागेश्वरधाम में श्रावणी मेले का आयोजन कोरोना महामारी के चलते बाधित हुआ है। जागेश्वरधाम मंदिर समिति द्वारा पारित नियमों का पालन करते हुए विभिन्न क्षेत्रों से श्रद्धालुओं का आवागमन जारी है। भोलेबाबा पर अटूट विश्वास रखने वाले हजारों श्रद्धालु नियमानुसार पंजीकरण करवाकर यहां पहुंच रहे हैं। कोरोना माहामारी के विनाश के लिए भी लोग भोलेबाबा से मन्नतें मांगते हैं। श्रावण माह में अपने घरों में भी पार्थिव (लघु शिवलिंग )पूजन करके बाबा को प्रसन्न कर सर्वे संतु निरामया की कामना लोग करते हैं।

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