नैनीताल में खुला देश का पहला काई संरक्षण और शोध सेंटर nainital news
नैनीताल में संरक्षण सेंटर बनाकर वन विभाग काई की प्रजातियों पर रिसर्च की शुरुआत कर चुका है। पारिस्थितिकीय तंत्र में इसका खासा महत्व है।
हल्द्वानी, गोविंद बिष्ट : नैनीताल में संरक्षण सेंटर बनाकर वन विभाग काई की प्रजातियों पर रिसर्च की शुरुआत कर चुका है। सबसे पुरानी वनस्पतियों में शामिल इस प्रजाति को आमतौर पर बेकार समझा जाता है, लेकिन पारिस्थितिकीय तंत्र में इसका खासा महत्व है। प्रदूषण का सबसे बड़ा इंडिकेटर मानी जानी वाली काई में एंटीसेप्टिक व एंटी बैक्टीरिया जैसे औषधीय गुण शामिल हैं। वनाधिकारियों के मुताबिक देश में पहली बार शुरू हुए रिसर्च में हिमालयी काई प्रजातियों को भी शामिल किया जाएगा।
औषधि के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं लोग
वन संरक्षक अनुसंधान संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक, भौगोलिक स्थिति के हिसाब से एक ही प्रजाति की काई के रंग में बदलाव आ सकता है। औषधीय महत्व के कारण ही हिमालयी क्षेत्र पिंडारी में लोग चोट लगने पर इसका इस्तेमाल करते हैं। हालांकि किसी भी तरह का शोध नहीं होने के कारण इनके बारे में विस्तार से जानकारी नहीं मिल सकी थी, जिस वजह से संरक्षण व शोध दोनों एक साथ शुरू किया गया है। पहले देववन व मुनस्यारी में सेंटर खोलने की चर्चा थी।
खुर्पाताल में एक हेक्टेयर में काम
कालाढूंगी रोड से नैनीताल की तरफ जाते वक्त शहर से ठीक पहले खुर्पाताल में एक हेक्टेयर जमीन पर प्रोजेक्ट शुरू किया गया है। सेंटर 1700-1800 मीटर ऊंचाई पर है। अनुसंधान सलाहकार समिति में प्रस्ताव पास होने पर कैंपा योजना के तहत काम किया जा रहा है।
धूल व चटक धूप से दिक्कत
वन अनुसंधान केंद्र के अफसरों के मुताबिक, काई को प्रदूषण का इंडिकेटर इसलिए माना जाता है, क्योंकि यह धूल व गंदगी के बीच नहीं पनपती। चटक धूप व सूखी पत्तियां इसे पनपने में दिक्कत करती हैं।
21 प्रजातियों का हो चुका संरक्षण
खुर्पाताल में शुरुआती दौर में 21 प्रजातियों का संरक्षण हो चुका है। इसमें होफिला, फिसीडेंस, फोलिया, ब्रोथरा, स्टीरियोफिलम, लिकोडन आदि शामिल हैं। लोगों को इनका महत्व पता चल सके, इसलिए हर प्रजाति का पूरा विवरण दर्ज किया जाएगा।
रिसर्च पूेर पांच साल चलेगा
संजीव चतुर्वेदी, वन संरक्षक अनुसंधान ने बतया कि दूसरे क्षेत्र में मिलने वाली प्रजातियों को ट्रांसप्लांट कर लाया गया है। मार्च तक बेसिक काम पूरा हो जाएगा। हालांकि रिसर्च पूरे पांच साल तक चलेगा।
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