भांग की खेती प्रतिबंधित होने और उपेक्षा के कारण पहाड़ से खत्म हो गया भंगेली शिल्प
पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में उत्पादित होने वाले भांग से बनने वाले उत्पाद अब बाजार से गायब हैं। एक समय था जब भांग के उत्पाद बनाकर पहाड़ के लोग अपनी आजीविका चलाते थे।
अल्मोड़ा, जेएनएन : पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में उत्पादित होने वाले भांग से बनने वाले उत्पाद अब बाजार से गायब हैं। एक समय था जब भांग के उत्पाद बनाकर पहाड़ के लोग अपनी आजीविका चलाते थे। लेकिन भांग की खेती को प्रतिबंधित किए जाने के बाद से इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की कमर टूट गई है। अब इन्हें न किसी तरह की सरकार से मदद मिल रही है न ही कोई इमदाद। नतीजा एक अनूठे शिल्प का लोप होता जा रहा है।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में भांग के पौधे से अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही थी। भांग के पौधे के रेशे को कपड़े बनाने में प्रयोग किया जाता था। पणि कहे जाने वाले लोगों द्वारा भांग की खेती की जाती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुमाऊं में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यवसाय को अपने हाथ में लेकर काशीपुर के पास एक डिपो की स्थापना की थी। इससे शराब भी बनाई जाती थी। दानपुर दसौली तथा गंगोली में कुछ जातियां भांग के रेशे से कुथले अर्थात बड़ी थैली और कंबल बनाने का कार्य करती थीं।
पबीला जाति के लोगों द्वारा इसके रेशे से कपड़ा तैयार किया जाता था। भांग के पौधे से वस्त्र निर्माण में मोटे तने वाली भांग के पौधे को काटकर इसकी छाल निकाली जाती थी। इसको पानी के पोखरों में 10 से 15 दिन तक मुलायम होने को डाल दिया जाता था। मुलायम हो चुकी छाल को निकाल कर इसे धोबी के कपड़ों की तरह किसी बड़े पत्थर पर पीटा जाता था। पतले रेशे बनाकर उसे हल्की धूप में भूरा होने तक सुखा लिया जाता था। फिर रेशे को सूत की तरह बट लिया जाता था। इसके बाद धागों को पानी से भरे बर्तन में चार घंटे तक उबालते थे। फिर सफेदी के लिए धो लिया जाता था। बट किए रेशे का गोला बनाकर इसकी दरी पट्टी आदि मनचाही वस्तुएं बनाई जाती थीं। भांग की बनी वस्तुएं मजबूत टिकाऊ और सुंदर होती हैं।
जरूरत है शिल्प को बढ़ावा देने की
कौशल किशोर सक्सेना, पुरातत्वविद ने बताया कि मशीनों द्वारा बनाए जाने वाली चटाई, थैलों आदि वस्तुओं की पहुंच घर-घर में हो गई है। भांग की खेती पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। हाथ से बनी महंगी रंगीली वस्तुओं की जगह कारखाने में बनी वस्तुओं ने ले ली है। वर्तमान में भांग से बनी वस्तुओं का मिलना दुर्लभ हो गया है। इस शिल्प को फिर से बढ़ावा दिया जाय तो यह लोगों की आजीविका का साधन बन सकता था।
इन स्थानों में होता है भांग का पौधा
पर्वतीय क्षेत्रों में भांग बहुतायत में उत्पादित होती है। खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं। उत्तराखंड के पिथौरागढ़, हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, बागेश्वर, गंगोलीहाट में बरसात के बाद भांग के पौधे सभी जगह दिखाई देते हैं।
भांग के बने उत्पादों का लगता था बाजार
उत्तराखंड के उत्तरायणी, नंदा देवी, जौलजीबी आदि मेलों में भांग से बनाए गए कुथले, दरी, रसिया का बाजार लगता था। नेपाली श्रमिक भांग के रेशे निकालकर रसिया बुन खाली समय का सदुपयोग करते थे। भांग से बने वस्त्रों की विशेषता है कि यह सर्दियों में गर्म तथा गर्मियों में ठंडा होता है। गुड़ की ढुलाई, अनाज भरने, खाद ढोने में भांग के रेशे से बने थैलों का खूब चलन था। लेकिन यह शिल्प अब दम तोड़ रहा है। भंगेली उद्योग के पुश्तैनी कारोबार से जुड़े लोग अब इस शिल्प को लगभग छोड़ चुके हैं।
3-8 फुट ऊंचे होते हैं भांग के पौधे
भांग एक प्रकार का पौधा है, जिसकी पत्तियों को पीस कर भांग तैयार की जाती है। उत्तर भारत में इसका प्रयोग बहुतायत से स्वास्थ्य, हल्के नशे तथा दवाओं के लिए किया जाता है। भारतवर्ष में भांग के अपने आप पैदा हुए पौधे सभी जगह पाये जाते हैं। भांग के पौधे 3-8 फुट ऊंचे होते हैं। इसके पत्ते एकान्तर क्रम में व्यवस्थित होते हैं। भांग के ऊपर की पत्तियां 1-3 खंडों से युक्त तथा निचली पत्तियां 3-8 खंडों से युक्त होती हैं।
चटनी और मसाले के रूप में भी किया जाता है प्रयोग
इंडस्ट्रियल कैंप प्रजाति के भांग के बीच को चटनी व मसाले के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके बीज में प्रोटीन की मात्रा सोयाबीन से ज्यादा है। वहीं, रेशे का इस्तेमाल कार की बॉडी, पेपर, टैक्सटाइल, तने से बायोफ्यूल, पेंट, वारनिश, ल्यूब्रिकेंट आयल आदि तमाम तरह के उत्पाद बनाए जाते हैं। फूल व पत्तियों का आयुर्वेदिक दवाओं व सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों में किया जाता है।
क्या कहते हैं जिम्मेदार
दीपक मुरारी, महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र अल्मोड़ा ने बताया कि वर्तमान में भांग के पौधे की खेती प्रतिबंधित है। पंतनगर विश्वविद्यालय भांग के पौधे की नई प्रजाति पर रिसर्च कर रहा है। उस प्रजाति की बहुतायत में उत्पादन होने पर फिर से इस शिल्प को बढ़ावा मिलेगा।
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