खूूबसूरत जंगल के बीच है मां काली का मंदिर, आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य के पड़े थे कदम

देवभूमि उत्तराखंड में देवी-देवताओं के कई मंदिर हैं। नैनीताल जिले के गौलापार के जंगल में काली माता का प्रसिद्ध मंदिर है। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने उत्तराखंड आगमन के दौरान सबसे पहले इसी स्थान पर आये थे।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Fri, 23 Oct 2020 12:52 PM (IST) Updated:Fri, 23 Oct 2020 12:52 PM (IST)
खूूबसूरत जंगल के बीच है मां काली का मंदिर, आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य के पड़े थे कदम
खूूबसूरत जंगल के बीच है मां काली का मंदिर, आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य के पड़े थे कदम

हल्द्वानी, जेएनएन: देवभूमि उत्तराखंड में देवी-देवताओं के कई मंदिर हैं। नैनीताल जिले के गौलापार के जंगल में काली माता का प्रसिद्ध मंदिर है। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने उत्तराखंड आगमन के दौरान सबसे पहले इसी स्थान पर आये थे। यहां की गई साधना से आदि गुरु शंकराचार्च को आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहां रककर उन्होंने लंबे समय तक साधना की। बाद में उनकी यात्रा अल्मोड़ा जिले के प्रसिद्ध जागेश्वर धाम होते हुए गंगोलीहाट की ओर बढ़ी। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से चार किमी की दूरी पर स्थित कालीचैड़ मंदिर के लिए गौलापार मार्ग पर खेड़ा सुल्तानपुरी से पैदल रास्ता जाता है। हरे-भरे विशाल वृक्षों के बीच से निकलने वाला पगडंडी नुमा रास्ता यात्रा में एडवेंचर पैदा करता है। यहां कोई पक्की सड़क नहीं है। यह जगह वन विभाग की है। ब्रिटिशकालीन पुराना चैड़ा पैदल रास्ता है। दोपहिया वाहन चालक अपने वाहनों से भी मंदिर तक पहुंच जाते हैं।

इस तरह हुई मंदिर की स्थापना

कालीचैड़ मंदिर बड़ा भव्य है। मंदिर की स्थापना के बारे में मान्यता है कि 1930 के दशक में कलकत्ता रहने वाले एक भक्त को सपने में आकर मां काली ने स्वयं इस गुमनाम स्थल के बारे में जानकारी दी। माता काली के कलकत्तावासी भक्त ने अपने हल्द्वानी निवासी एक मित्र रामकुमार चूड़ीवाले को इसकी जानकारी दी। दोनों भक्त कुछ अन्य श्रद्धालुओं के साथ गौलापार पहुंचे और इस जगह को ढूंढ़ लिया। यहां पर मां काली, भगवान शिव मूर्ति मिली। खुदाई में एक ताम्रपत्र भी मिला जिसमें मां काली के महात्म्य का उल्लेख किया गया था।

ऋषिमुनियों की रही तपस्थली

कालीचैड़ की पवित्र भूमि को ऋषि-मुनियों की तपस्थली माना जाता है। वरिष्ठ ज्योतिषाचार्य डा. नवीन चंद्र जोशी बताते हैं कि सतयुग में सप्त ऋषियों ने इस स्थान पर मां काली की आराधना कर अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थीं। मार्कण्डेय ऋषि ने भी यहां तपस्या कर काली से वरदान प्राप्त किया। पुलस्तय ऋषि के साथ अत्रि व पुलह ऋषि ने भी इसी स्थान पर तपस्या की। आधुनिक समय में गुरु गोरखनाथ, महेंद्रनाथ, सोमवारी बाबा, नान्तीन बाबा, हैड़ाखान बाबा सहित अनेक अंतों ने कालीचैड़ की भूमि पर तपस्या कर आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की। पायलट बाबा ने अपनी पुस्तक ‘हिमालय कह रहा है’ में कालीचैड़ के माहात्म्य का उल्लेख किया है।

प्रबंधक समिति करती है संचालन

कालीचैड़ मंदिर में महाकाली के साथ ही भक्त प्रहलाद, भगवान शिव, हनुमान, वेदव्यास आदि के मंदिर बने हैं। करीब सात दशक पहले एक पेड़ के नीचे खुदाई के दौरान निकली मूर्तियों से बनाया गया यह मंदिर आज भव्य आकार ले चुका है। वर्तमान में मंदिर की देखरेख, संचालन मंदिर प्रबंधक समिति करती है। इस सिद्धपीठ में दूर-दूर से श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला साल भर चलता रहता है। नवरात्र और शिवरात्रि में यहां भंडारे का आयोजन होता है।

chat bot
आपका साथी