जानिए क्या है खंडिनी पताका, जिसे कुंभ में फहरा स्वामी दयानंद सरस्वती बने संन्यासी योद्धा

Haridwar Kumbh Mela 2021 आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती वर्ष 1867 हरिद्वार कुंभ में पाखंड खंडनी पताका फहरा संन्यासी योद्धा बने थे। उन्होंने समाज में व्याप्त बुराईयों पाखंड अंधविश्वास के खिलाफ अपनी आवाज भी उठाई थी।

By Raksha PanthriEdited By: Publish:Fri, 26 Mar 2021 01:13 PM (IST) Updated:Fri, 26 Mar 2021 01:32 PM (IST)
जानिए क्या है खंडिनी पताका, जिसे कुंभ में फहरा स्वामी दयानंद सरस्वती बने संन्यासी योद्धा
पाखंड के खिलाफ स्वामी दयानंद सरस्वती ने फहराई थी पताका।

अनूप कुमार, हरिद्वार। Haridwar Kumbh Mela 2021 आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती वर्ष 1867 हरिद्वार कुंभ में पाखंड खंडनी पताका फहरा संन्यासी योद्धा बने। उन्होंने समाज में व्याप्त बुराईयों, पाखंड, अंधविश्वास के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठाई, बल्कि उस वक्त हरिद्वार के भूपतवाला क्षेत्र में स्थापित अपने शिविर में पाखंड खंडनी पताका को फहराकर इन्हें समाप्त करने के अपने संकल्प को जनांदोलन बना दिया। 154 वर्ष से यह पताका हरिद्वार के वैदिक मोहन आश्रम में अनवरत फहरा रही है और समाज में फैले अंधविश्वास, सामाजिक बुराईयों और पाखंड को समाप्त करने की प्रेरणा दे रही है।  

इतिहासकार डॉ. विष्णुदत्त राकेश और पुस्तक गंगा के द्वार के अनुसार राजा राम मोहन राय, केशवचंद्र सेन, देवेंद्रनाथ ठाकुर और रामकृष्ण परमहंस के समकालीन स्वामी दयानंद सरस्वती ने उस दौर में पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई जिस वक्त इन पर बात करना भी वर्जित था। उस वक्त भारत में चारों ओर पाखंड का बोल-बाला था, अंधविश्वास अपने चरम पर था और समाज का बड़ा तबका दिशाहीन अवस्था में कार्य-व्यवहार कर रहा था। तब स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु स्वामी विरजानंद के आर्शीवाद से इसके खिलाफ आवाज उठाई और समाज सुधार का जिम्मा लिया।

उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही, बाल विवाह व सती प्रथा को रोकने के आंदोलन चलाए। स्वामी दयानंद सरस्वती पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अछूत परंपरा को दूर किया। साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों, रुढिय़ों और अंधविश्वास को रेखांकित करते हुए उससे दूर रहने, उसे मिटाने को निर्भय होकर आवाज उठाई थी। और बड़े समाज सुधारक के तौर पर स्थापित हो संन्यासी योद्धा कहलाए।

क्या है पाखंड खंडनी पताका

स्वामी दयानंद सरस्वती ने जन कल्याणकारी वेदवाणी का प्रचार करने के लिए 1867 में कुंभ मेले में जनता को पाखंडों से घिरे अंधकार से बाहर निकालकर उसे सद्ज्ञान से परिचित कराने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी। इतिहासकार डा. विष्णुदत्त राकेश बताते हैं कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तिका पाखंड खंडनी में कहा था कि 'गिरना या फिसलना सरल है, संभलना समझदारी है पर, संभल कर उठकर खड़े होना, अपने को सच्चाई के मार्ग पर स्थापित कर लेना बेहद कठिन है। असत्य का परित्याग करना और सत्य को अपनाना, सत्य को जानना ही पाखंड को तोडऩा, उसका नाश करना है। पाखंड खंडनी पताका इसी का मार्गदर्शक है।' 

वेदों को माना सर्वोपरि 

वेदों का प्रचार करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने पूरे देश का दौरा किया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी भाषा में लिखा गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने कुंभ मेले सहित अपने भारत भ्रमण के दौरान वेदवाणी को सर्वोच्च बताने के साथ-साथ आम जनता में स्वदेशी की भावना जागृत करने का भी काम किया था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी स्वलिखित पुस्तिका पाखंड खंडनी का वितरण भी कराया था। 

सौ फीट से अधिक ऊंची है पताका

हरिद्वार के भूपतवाला क्षेत्र में स्थित वैदिक मोहन आश्रम में स्थापित पाखंड खंडनी पताका सौ फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थापित है और दूर से नजर आती है। जिस पर ओम और पाखंड खंडनी पताका लिखा हुआ है। बताया जाता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने वर्ष 1867 में कपड़े की पताका फहरायी थी। यह मूल पताका धातु की पताका में समाहित है। आश्रम की ओर से इसे लेकर कोई अधिकृत जानकारी साझा नहीं की गई। 

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