आखिर यह नौबत क्यों आती है कि कर्मचारियों को हड़ताल करनी पड़े?
जब कर्मचारियों या किसी संगठन की जायज मांग को तंत्र के स्तर पर लगातार अनसुना किया जाता है तो लोग अपने इस अधिकार का उपयोग करते हैं। सिस्टम की हीला-हवाली आग में घी का काम करती है। ऐसे में कई बार हालात बेहद गंभीर हो जाते हैं।
देहरादून, स्टेट ब्यूरो। कोरोना के साथ ही मानसून की चुनौतियों से जूझ रहे उत्तराखंड में कर्मचारियों के आंदोलन ने आम जन की दिक्कतों में इजाफा ही किया है। इन दिनों ऊर्जा से जुड़े तीनों निगमों के कार्मिकों के साथ ही सफाई कर्मचारी भी अपनी विभिन्न मांगों को लेकर मुखर हैं। हालांकि सुकून इस बात का है कि ऐन वक्त पर सरकार सक्रिय हुई और कर्मचारी संगठनों से वार्ता की। इसके परिणाम सकारात्मक नजर आ रहे हैं। इतना ही नहीं, वेतन विसंगतियों के मसले पर सरकार ने पूर्व मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का गठन कर कर्मचारियों के आक्रोश को शांत करने का प्रयास किया है।
विडंबना ही है कि वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद से ही उत्तराखंड में कर्मचारियों का असंतोष दिखता रहा है। फलस्वरूप यह असंतोष हड़ताल के रूप में सामने आता रहा है। पांच वर्ष पूर्व कराए गए एक सर्वे में विभिन्न आंदोलनों के कारण काम ठप रहने के मामले में उत्तराखंड शीर्ष पर था। फिर चाहे बात कर्मचारियों की हड़ताल की हो अथवा छात्रों, शिक्षकों या किसी अन्य आंदोलन की।
साफ है कि इन आंदोलनों का प्रभाव प्रदेश के विकास पर पड़ता है। सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर यह नौबत क्यों आती है कि कर्मचारियों को हड़ताल करनी पड़े। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करना हर किसी का लोकतांत्रिक अधिकार है। जब कर्मचारियों या किसी संगठन की जायज मांग को तंत्र के स्तर पर लगातार अनसुना किया जाता है तो लोग अपने इस अधिकार का उपयोग करते हैं। सिस्टम की हीला-हवाली आग में घी का काम करती है। ऐसे में कई बार हालात बेहद गंभीर हो जाते हैं। मसलन ऊर्जा से जुड़े निगमों के कार्मिकों के आंदोलन को ही लें। एसीपी और समान काम समान वेतन की मांग को लेकर इनके संगठन पहले ही हड़ताल का एलान कर चुके थे, लेकिन सरकार ने इनसे वार्ता तब शुरू की जिस दिन उन्हें हड़ताल पर जाना था।
अब सवाल यह है कि वार्ता के लिए इतना विलंब क्यों किया गया। यह सर्वविदित सत्य है कि किसी भी आंदोलन का समाधान बातचीत की मेज पर ही होता है। ऐसे में शासन और सरकार मामले को क्यों खींचते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यदि कर्मचारियों की मांगें जायज हैं और सरकार ने उन्हें पूरा करना ही है तो आंदोलन का इंतजार क्यों किया जाता है। इसके अलावा कर्मचारी संगठनों को भी विचार करना चाहिए कि लोकतंत्र में यदि अधिकार दिए गए हैं तो कर्तव्य भी परिभाषित किए गए हैं। अधिकारों के लिए जागरूकता के साथ ही जरूरी है कि कर्तव्य का भी बोध हो। राज्य व जनता के प्रति भी कर्मचारियों की जवाबदेही है। सरकार और कर्मचारी संगठनों को चाहिए कि समस्या को इतना न बढ़ने दिया जाए कि आम जनजीवन प्रभावित होने लगे।