लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को खल रही कद्दावर नेताओं की कमी

पिछले पांच वर्षो के दौरान एक के बाद एक दिग्गज नेताओं के दामन झटक लेने के बाद अब लोकसभा चुनाव के मौके पर कांग्रेस को इनकी कमी शिद्दत से महसूस हो रही है।

By Edited By: Publish:Thu, 21 Feb 2019 03:00 AM (IST) Updated:Thu, 21 Feb 2019 08:41 PM (IST)
लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को खल रही कद्दावर नेताओं की कमी
लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को खल रही कद्दावर नेताओं की कमी

देहरादून, विकास धूलिया। पिछले पांच वर्षो के दौरान एक के बाद एक दिग्गज नेताओं के दामन झटक लेने के बाद अब लोकसभा चुनाव के मौके पर कांग्रेस को इनकी कमी शिद्दत से महसूस हो रही है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बड़े नेताओं की गैर मौजूदगी में दूसरी पांत के नेता अपनी छाप छोड़ने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। 

प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को पार्टी ने दिल्ली में व्यस्त कर दिया है। हालांकि इसकी वजह प्रदेश कांग्रेस में दूसरी पांत को विकसित करना और गुटबाजी पर विराम लगाना ही था। 

उत्तराखंड में मुख्यतया कांग्रेस और भाजपा ही व्यापक जनाधार रखती हैं। राज्य गठन के बाद पहले और तीसरे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई, जबकि दूसरे और चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला। 

वर्ष 2012 में जब कांग्रेस ने दूसरी बार उत्तराखंड में सत्ता संभाली तो टिहरी के तत्कालीन सांसद विजय बहुगुणा को आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। यूं तो कांग्रेस में राज्य गठन के बाद से ही गुटीय खींचतान चलती रही मगर बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद यह चरम पर पहुंच गई। 

नतीजतन दो साल का कार्यकाल पूरा करने से पहले ही बहुगुणा को रुखसत होना पड़ा। वर्ष 2014 की शुरुआत में बहुगुणा के उत्तराधिकारी के रूप में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री हरीश रावत को मौका मिला, लेकिन आलाकमान का यह फैसला पार्टी के अन्य दिग्गजों को रास नहीं आया। 

लोकसभा चुनाव से ऐन पहले आलाकमान के इस फैसले से खफा पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद भी कांग्रेस में भितरखाने असंतोष लगातार बढ़ता गया, जिसकी परिणति मार्च 2016 में पार्टी में टूट के रूप में हुई। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के साथ ही डॉ. हरक सिंह रावत समेत 10 विधायक कांग्रेस से निकल भाजपा में शामिल हो गए। रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कैबिनेट मंत्री और दो बार कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य भी भाजपा में चले गए। 

मार्च 2016 में पार्टी में टूट के बावजूद हरीश रावत अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे, मगर वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के हाथों करारी शिकस्त खानी पड़ी। भाजपा 70 सदस्यीय विधानसभा में 57 सीटों पर जीती तो कांग्रेस महज 11 सीटों पर सिमट गई। इस करारी हार का नतीजा यह हुआ कि पार्टी के भीतर अंतर्कलह खत्म होने की बजाए और ज्यादा बढ़ता गया। 

एक तरफ हरीश रावत का खेमा तो दूसरी ओर प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ. इंदिरा हृदयेश की जुगलबंदी। हालात को देख आलाकमान को हरीश रावत को सूबे की सियासत से दूर करने का कदम उठाना पड़ा। उन्हें न केवल राष्ट्रीय महासचिव की अहम जिम्मेदारी देकर दिल्ली बुला लिया गया, बल्कि साथ ही असोम का भी प्रभार सौंप दिया गया। 

इसके बाद उत्तराखंड में कांग्रेस का जिम्मा दूसरी पांत के नेताओं के पास आ गया लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि पिछले दो साल में पार्टी सशक्त नेतृत्व विकसित नहीं कर पाई। अब जबकि लोकसभा चुनाव बस चंद हफ्ते दूर हैं, पार्टी को दिग्गज नेताओं की कमी महसूस हो रही है। 

कभी उत्तराखंड में कांग्रेस के पास राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले कई कद्दावर नेता हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसे नेताओं में केवल हरीश रावत का ही नाम शुमार किया जा सकता है। इस स्थिति में पार्टी के समक्ष लोकसभा चुनाव में नेतृत्व के साथ ही प्रत्याशी चयन को लेकर भी बड़ी चुनौती रहेगी।

प्रदेश प्रभारी दे सकते हैं जवाब 

पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत के अनुसार उत्तराखंड में कांग्रेस में दूसरी पांत के नेताओं के आगे आने का जो सवाल है, उसका जवाब प्रदेश प्रभारी ही दे सकते हैं। वैसे, उत्तराखंड कांग्रेस में सशक्त नेताओं की कोई कमी नहीं है। कांग्रेस के पास कई प्रतिभवान नेता हैं और राजनीति में चमक भी बिखेर रहे हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से पार्टी की मजबूती के लिए लगा हुआ हूं, भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारों के खिलाफ मुद्दों को उठाता रहा हूं। 

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